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________________ २६ या वर्ष ३७५ कोई भी जाननेवाला कभी भी किसी भी पदार्थको अपनी अविद्यमानतासे जाने, ऐसा होने योग्य नहीं है । प्रथम अपनी विद्यमानता घटित होती है, और किसी भी पदार्थका ग्रहण, त्यागादि अथवा उदासीन ज्ञान होनेमे स्वय ही कारण है। दूसरे पदार्थके अगीकारमे, उसके अल्पमात्र भी ज्ञानमे प्रथम जो हो, तभी हो सकता है. ऐसा सवसे प्रथम रहनेवाला जो पदार्थ हे वह जीव है। उसे गौण करके अर्थात् उसके बिना कोई कुछ भी जानना चाहे तो वह सम्भव नहीं है, मात्र वही मुख्य हो तभी दूसरा कुछ जाना जा सकता है, ऐसा यह प्रगट 'ऊर्ध्वताधर्म', वह जिसमे है, उस पदार्थको श्री तीर्थंकरदेव जीव कहते है। प्रगट जड पदार्थ और जीव, वे जिस कारणसे भिन्न होते है, वह लक्षण जीवका ज्ञायकता नामका गुण है । किसी भी समय यह जीव-पदार्थ ज्ञायकतारहित रूपसे किसीको भी अनुभवगम्य नही हो सकता। और इस जीव नामके पदार्थके सिवाय दूसरे किसी भी पदार्थमे ज्ञायकता नही हो सकती, ऐसा जो अत्यन्त अनुभवका कारण ज्ञायकता, वह लक्षण जिसमे है उस पदार्थको तीर्थकरने जीव कहा है। शब्दादि पाँच विषयसम्बन्धी अथवा समाधि आदि योगसम्बन्धी जिस स्थितिमे सुख होना सम्भव है, उसे भिन्न भिन्नरूपसे देखनेसे अन्तमे केवल उन सबमे सुखका कारण एक यह जीव-पदार्थ ही सम्भव है । इसलिये श्री तीर्थकरने जीवका 'सुखभास' नामका लक्षण कहा है, और व्यवहार दृष्टातसे निद्रा द्वारा वह प्रगट मालम होता है । जिस निद्रामे अन्य सब पदार्थोंसे रहितपन है, वहाँ भी 'मै सुखी हूँ', ऐसा जो ज्ञान है, वह बाकी बचे हुए जीव पदार्थका ही है, अन्य कोई वहाँ विद्यमान नहीं है, और सुखका आभास होना तो अत्यन्त स्पष्ट है, वह जिससे भासित होता है उम जीव नामके पदार्थके सिवाय अन्य कही-भी वह लक्षण नही देखा । यह फीका है, यह मीठा है, यह खट्टा है, यह खारा है, मै इस स्थितिमे हूँ, ठण्डसे ठिठुरता हूँ, गरमी पडती हे, दुखी हूँ, दुखका अनुभव करता हूँ, ऐसा जो स्पष्ट ज्ञान, वेदनज्ञान, अनुभवज्ञान, अनुभवता, वह यदि किसीमे भी हो तो वह इस जीवपदमे है, अथवा यह जिसका लक्षण होता है, वह पदार्थ जीव होता है, यही तीर्थंकरादिका अनुभव है। स्पष्ट प्रकाशता, अनन्त अनन्त कोटी तेजस्वी दीपक, मणि, चन्द्र, सूर्यादिको काति जिसके प्रकाशके बिना प्रगट होनेके लिये समर्थ नही है अर्थात् वे सब अपने आपको बताने अथवा जाननेके योग्य नही है। जिस पदार्थके प्रकाशमे चैतन्यतासे वे पदार्थ जाने जाते है, वे पदार्थ प्रकाश पाते है, स्पष्ट भासित होते है वह पदार्थ जो कोई है वह जीव है । अर्थात वह लक्षण प्रगटरूपसे स्पष्ट प्रकाशमान, अचल ऐसा निरावाध प्रकाशमान चैतन्य, उस जीवका उस जीवके प्रति उपयोग लगानेसे प्रगट दिखायी देता है। ये जो लक्षण कहे हे उन्हे पुनः पुन विचारकर जीव निरावाधरूपसे जाना जाता है, जिन्हे जाननेसे जीवको जाना है, ये लक्षण इस प्रकारसे तीर्थकरादिने कहे है। ४३९ ववई, चैत्र सुदो ६, गुरु, १९४२ "ममता रमता ऊरधता" ये पद इत्यादि पद जो जीवके लक्षणके लिखे थे, उनका विशेष अर्थ लिखकर एक पत्र पाँच दिन हुए मोरवी गेजा है, जो मोरवी जानेपर प्राप्त होना सम्भव है। ___ उपाधिका योग विशेष रहता है। जैसे जैसे निवृत्तिके योगकी विशेष इच्छा हो आती है, वैसे वैने उपाधिकी प्राप्तिका योग विशेष दिखायी देता है। चारो तरफसे उपाधिको भीड़ है। कोई ऐसा मार्ग
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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