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________________ ३७१ २६ वां वर्ष निरंतर ज्ञानदशापर जीवोका चित्त हो, उसमे अवश्य कल्याणके उत्पन्न होनेका योग मानते है। ऐसा न हो तो उस योगका सम्भव नही होता । यहाँ तो लोकसज्ञासे, ओघसज्ञासे, मानार्थ, पूजार्थ, पदके महत्वार्थ, श्रावकादिके अपनेपनके लिये अथवा ऐसे दूसरे कारणोसे जपतपादि, व्याख्यानादि करनेकी प्रवृत्ति हो गयी है, वह किसी तरह आत्मार्थके लिये नही है, आत्मार्थक प्रतिवधरूप है। इसलिये यदि आप कुछ इच्छा करते हो तो उसका उपाय करनेके लिये जो दूसरा कारण कहते है, उसके असगतासे सिद्ध होनेपर किसी दिन भी कल्याण होना सम्भव है। असगता अर्थात् आत्मार्थके सिवायके संगप्रसगमे नही पडना, ससारके सगीके सगमे बातचीतादिका प्रसग शिष्यादि बनानेके कारणसे नही रखना, शिष्यादि बनानेके लिये गृहवासी वेषवालोको साथमे नही घुमाना । दीक्षा ले तो तेरा कल्याण होगा', ऐसे वाक्य तीर्थंकरदेव कहते नही थे। उसका एक हेतु यह भी था कि ऐसा कहना यह भी उसके अभिप्रायके उत्पन्न होनेसे पहले उसे दीक्षा देना है, वह कल्याण नही है। जिसमे तीर्थंकरदेवने ऐसे विचारसे प्रवृत्ति की है, उसमे हम छ. छः मास दीक्षा लेनेका उपदेश जारी रखकर उसे शिष्य बनाते हैं, वह मात्र शिष्यार्थ है, आत्मार्थ नही है । पुस्तक, यदि सब प्रकारके अपने ममत्वभावसे रहित होकर ज्ञानकी आराधना करनेके लिये रखी जाय तो ही आत्मार्थ है, नही तो महान प्रतिबन्ध है, यह भी विचारणीय है। ___ यह क्षेत्र अपना है, और उस क्षेत्रकी रक्षाके लिये वहाँ चातुर्मास करनेके लिये जो विचार किया जाता है, वह क्षेत्रप्रतिबन्ध है । तीर्थकरदेव तो ऐसा कहते हैं कि द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे-इन चारो प्रतिबधसे यदि आत्मार्थ होता हो अथवा निग्रंथ हुआ जाता हो तो वह तीर्थंकरदेवके मार्गमे नही हैं, परन्तु ससारके मार्गमे है । इत्यादि बात यथाशक्ति विचारकर आप बताइयेगा। लिखनेसे बहुत लिखा जा सके, ऐसा सूझता है, परन्तु अब यहाँ स्थिति-विराम करता है। लि० रायचन्दके प्रणाम । ४३१ बबई, फागुन सुदी ७, गुरु, १९४९ आत्मारूपसे सर्वथा जाग्रत अवस्था रहे, अर्थात् आत्मा अपने स्वरूपमे सर्वथा जाग्रत हो तब उसे केवलज्ञान हुआ है, ऐसा कहना योग्य है, ऐसा श्री तीथंकरका आशय है। जिस पदार्थको तीर्थकरने 'आत्मा' कहा है, उसी पदार्थको उसी स्वरूपमें प्रतीति हो, उसी परिणामसे आत्मा साक्षात् भासित हो, तब उसे परमार्थ-सम्यक्त्व है. ऐसा श्री तीर्थंकरका अभिप्राय है। जिसे ऐसा स्वरूप भासित हुआ है, ऐसे पुरुषमे जिसे निष्काम श्रद्धा है, उस पुरुषको वीजरुचि-सम्यक्त्व है । उस पुरुषकी निष्काम भक्ति अबाधासे प्राप्त हो, ऐसे गुण जिस जीवमे हो, वह जीव मार्गानुसारी होता है, ऐसा जिनेंद्र कहते हैं। हमारा अभिप्राय कुछ भी देहके प्रति हो तो वह मात्र एक आत्मार्थके लिये ही है, अन्य अर्थके लिये नही । दूसरे किसी भी पदार्थके प्रति अभिप्राय हो तो वह पदार्थके लिये नही, परन्तु आत्मार्थके लिये है। वह आत्मार्थ उस पदार्थकी प्राप्ति-अप्राप्तिमे हो, ऐसा हमे नही लगता। 'आत्मत्व' इस ध्वनिके सिवाय दूसरी कोई ध्वनि किसी भी पदार्थके ग्रहण-त्यागमे स्मरण योग्य नही है। अनवकाश आत्मत्व जाने बिना, उस स्थितिके बिना अन्य सर्व क्लेशरूप है।। ४३२ वबई, फागुन सुदी ७, गुरु, १९४९ अवालालका लिखा हुआ पत्र पहुंचा था। आत्माको विभावसे अवकाशित करनेके लिये ओर स्वभावमे अनवकाशरूपसे रहनेके लिये कोई भी मुख्य उपाय हो तो आत्माराम ऐसे ज्ञानीपुरुषका निष्काम वुद्धिसे भक्तियोगरूप सग है। उसकी सफलताके
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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