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________________ ३६८ श्रीमद् राजचन्द्र जीवको ऐसा योग मिलता रहता है, अथवा तो ज्ञानरहित गुरु या परिग्रहादिके इच्छुक गुरु, मात्र अपने मानपूजादिकी कामनासे फिरनेवाले जीवोको अनेक प्रकारसे उलटे रास्तेपर चढा देते है, और प्राय क्वचित् ही ऐसा नही होता । जिससे ऐसा मालूम होता है कि कालकी दु षमता है । यह दुषमता जीवको पुरुषार्थरहित करनेके लिये नही लिखी है, परन्तु पुरुषार्थ जागृतिके लिये लिखी है । अनुकूल सयोगमे तो जीवमे कुछ कम जागृति हो तो भी कदाचित् हानि न हो, परन्तु जहाँ ऐसे प्रतिकूल योग रहते हो वहाँ मुमुक्षु जीवको अवश्य अधिक जाग्रत रहना चाहिये, कि जिससे तथारूप पराभव न हो, और वैसे किसो प्रवाहमे न बहा जाये | वर्तमानकाल दुःषम कहा है, फिर भी इसमे अनन्त भवको छेदकर मात्र एक भव बाकी रखे, ऐसी एकावतारिता प्राप्त हो, ऐसा भी है । इसलिये विचारवान जीव यह लक्ष रखकर, उपर्युक्त प्रवाहोमे न बहते हुए यथाशक्ति वैराग्यादिकी आराधना अवश्य करके, सद्गुरुका योग प्राप्त करके, कषायादि दोषका छेदक और अज्ञानसे रहित होनेका सत्यमार्ग प्राप्त करे । मुमुक्षु जीवमे कथित शमादिगुण अवश्य सम्भव है, अथवा उन गुणोके बिना मुमुक्षुता नही कही जा सकती । नित्य ऐसा परिचय रखते हुए, उस उस बातका श्रवण करते हुए, विचार करते हुए, पुन. पुन पुरुषार्थ करते हुए वह मुमुक्षुता उत्पन्न होती है । वह मुमुक्षुता उत्पन्न होनेपर जीवको परमार्थमार्ग अवश्य समझमे आता है । ४२३ बबई, कार्तिक वदी ९, १९४९ कम प्रमाद होनेका उपयोग जीवकी मार्गके विचारमे स्थिति कराता है । और विचार मार्ग में स्थिति कराता है । इस बातका पुन पुन. विचार करके, यह प्रयत्न वहाँ वियोगमे भी किसी प्रकारसे करना योग्य है । यह बात विस्मरणीय नही है । ४२४ बंबई, कार्तिक वदी १२, १९४९ समागम चाहने योग्य मुमुक्षुभाई कृष्णदासादिके प्रति, "पुनर्जन्म है - जरूर है | इसके लिये 'में' अनुभवसे हॉ कहनेमे अचल हूँ ।" यह वाक्य पूर्वभवके किसी योगका स्मरण होते समय सिद्ध हुआ लिखा है । जिसने पुनर्जन्मादि भाव किये हैं, उस 'पदार्थ' को, किसी प्रकारसे जानकर यह वाक्य लिखा गया है । मुमुक्षुजीवके दर्शनकी तथा समागमकी निरंतर इच्छा रखते है । तापमे विश्रातिका स्थान उसे समझते है । तथापि अभी तो उदयाधीन योग रहता है। अभी इतना ही लिख सकते है । श्री सुभाग्य यहाँ वृत्ति है । प्रणाम प्राप्त हो । ४२५ बई, मगसिर वदी ९, सोम, १९४९ उपाधिका वेदन करनेके लिये अपेक्षित दृढता मुझमे नही है, इसलिये उपाधिसे अत्यंत निवृत्तिकी इच्छा रहा करती है, तथापि उदयरूप जानकर यथाशक्ति सहन होती है । परमार्थका दु.ख मिटनेपर भी ससारका प्रासंगिक दु ख रहा करता है, और वह दुख अपनी इच्छा आदिके कारणसे नही है, परन्तु दूसरेकी अनुकपा तथा उपकार आदिके कारणसे रहता है । और इस वि वनामे चित्त कभी कभी विशेष उद्वेगको प्राप्त हो जाता है । इतने लेखसे वह उद्वेग स्पष्ट समझमे नही आयेगा, कुछ अशमे आप समझ सकेंगे। इस उद्वेगके सिवाय दूसरा कोई दु.ख ससारप्रसगका भी मालूम नही होता । जितने प्रकारके ससारके पदार्थ हैं, उन
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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