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________________ २५ वाँ वर्ष जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति मांही, तृषावत मृषाजल कारण अटतु है; तैसें भववासी मायाहीसौं हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम श्रम नाटक नटतु है । आगेको धुकत घाई पीछे बछरा चवाई, जैसे नैन होन नर जेवरी वटतु है; तैसे मूढ चेतन सुकृत करतूति करें, रोयत हसत फल खोवत खटतु है ॥२॥ ४१९ संसारमे कौनसा सुख है कि जिसके प्रतिबन्धमे जीव रहनेकी इच्छा करता है ? ४२० कि बहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहु विलिज्जति । तह तह पर्याट्ठि अव्व, एसा आणा जिणिदाण ॥ ३६५ (समयसार नाटक) बबई, १९४८ बबई, १९४८ (उपदेशरहस्य - यशोविजयजी) कितना कहे ? जिस जिस प्रकारसे इस रागद्वेषका विशेषरूपसे नाश हो उस उस प्रकार से प्रवृत्ति करना, यही जिनेश्वरदेवकी आज्ञा है । ४२१ बबई, आसोज, १९४८ जिस पदार्थमेसे नित्य व्यय विशेष होता हो और आय कम हो, वह पदार्थ क्रमसे अपने स्वत्त्वका त्याग करता है, अर्थात् नष्ट होता है, ऐसा विचार रखकर इस व्यवसायका प्रसग रखने जैसा है । पूर्वमे उपार्जित किया हुआ जो कुछ प्रारब्ध है, उसे वेदन करनेके सिवाय दूसरा प्रकार नही है, और योग्य भी इस तरह है, ऐसा समझकर जिस जिस प्रकारसे जो कुछ प्रारब्ध उदयमे आता है उसे समपरिणामसे वेदन करना योग्य है, और इस कारणसे यह व्यवसाय प्रसग रहता है। चित्तमे किसी प्रकारसे उस व्यवसायकी कर्तव्यता प्रतीत न होनेपर भी, वह व्यवसाय मात्र खेदका हेतु है, ऐसा परमार्थ निश्चय होनेपर भी प्रारम्भ रूप होने से, सत्सगादि योगका अप्रधानरूपसे वेदन करना पडता है । उसका वेदन करनेमे इच्छा-अनिच्छा नही है, परन्तु आत्माको अफल ऐसी इस प्रवृत्तिका सम्बन्ध रहते देखकर खेद होता है और इस विषयमे वारवार विचार रहा करता है । बोझ उठाता है, शरीर आदि पर वस्तुओंसे प्रीति करता है, मन, वचन और काया के योगोमें अहबुद्धि करता है, और विषयभोगों से किंचित् भी विरक्त नही होता ॥ १ ॥ जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु सूर्य की कडी धूप होनेपर तृपातुर मृग उन्मत्त होकर मृगतृष्णासे व्यर्थ ही दोडता है, उसी प्रकार ससारी जीव मायामें ही कल्याण मानकर मिथ्या कल्पना करके ससारमे नाचते है । जिस प्रकार अन्धा मनुष्य आगेको रस्सी बटता जाये और पीछेसे बछडा खाता जाये, तो मूर्ख जीव शुभाशुभ क्रिया करता है और शुभ क्रियाके फलमे हर्ष एव फल खो देता है ॥ २ ॥ उसका परिश्रम व्यर्थ जाता है, उसी प्रकार क्रियाके फलमे विषाद करके क्रियाका अशुभ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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