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________________ ३४४ ". ३४४ ३.१ "मनके कारण यह मब है", महात्माको ! ३८६ परिपक्व समाधिरूप देह दो कारणोंसे विद्यमान, उपाधियोगमे । ३८७ स्वस्वरूपज्ञानसे छुटकारा, जिन होकर प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर कब? ३३७ / जिनकी आराधना, मुख्य समाघि ३४४ ३७४ बानीका वैभव जार मुमुक्षु, वर्तमानमे | ३८८ 'जगत जिसमे सोता है, उसमे ज्ञानी जागता समतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ निश्चय , ३४४ करना योग्य, भविष्यचिंतासे परमार्थका ३८९ 'सत्तान' की समझ कब ? जगत और विस्मरण, लज्जा और आजीविका मिय्या, मोक्षका मार्ग एक नही ममपरिणाममें परिणमित होना ३३७ : ३९० त्वरासे कर्मक्षय करनेका अनेक वर्षाका ३७५ जिनागम उपशमस्वरूप, आत्मार्थके लिये सकल्प, ध्यानसुख . ___३४५ उसका आराधन, राग आदि दोपोकी ३९१ 'सत्' एक प्रदेश भी दूर नही, तथापि अनत निवृत्ति एक आत्मनानसे, सत्सगका अतराय अप्रमत्ततासे 'सत्'का श्रवण आदि ३४५ माहात्म्य, कर्मक्लेशकी निवृत्ति एव आत्म- ३९२ सनातनधर्म-अवसरप्राप्तमे सतुष्ट रहना ३४५ स्वरूपकी प्राप्तिके लिये सूत्रकृतागका ३९३ पूर्वकालमें आराधित उपाघि उदयरूपसे अध्ययन व श्रवण कर्तव्य ३३८ समाधि है, आनदघनजीके दो पद्योकी स्मृति ३४५ ३७६ ज्ञानीकी देह और वर्तन, प्रवृत्ति-योग , ३९४ 'मन महिलानु रे वहाला उपरे', और 'जिन परेच्छासे, अविषमतामे आत्मध्यान ३३९ स्वरूप थई जिन आराधे' पद्योका विवेचन, ३७८ नवपदको सपत्ति भी आत्मामें, आत्मस्थ भक्तिप्रधान दशा, उस मूर्तिको प्रत्यक्षतामें ज्ञानी पुरपका स्वरूप, 'ईश्वरेच्छा' का अर्थ ३४० / गृहाश्रम और चित्रपटमे सन्यस्ताश्रम, उस ३७८ निश्चयसे अकर्ता, व्यवहारसे कर्ता इत्यादि आत्मस्वरूप पुरुपकी दशा विचारणीय है ३४६ विचारणीय, माससे परमार्थके प्रति ३९५ 'तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ़ घरे' का विवेचन, निर्विकल्प ३४० दु ख मिटनेका मार्ग ३४७ ३७९ तरनतारन, मोक्ष दुर्लभ नही, दाता दुर्लभ, | ३९६ अनवकाश आत्मस्वरूप, उस पुरुपके निस्पृह बुद्धि, 'वनकी मारी कोयल' ३४१ स्वरूपको जानकर उसकी भक्तिके सत्सग३८० मोक्षका धुरधर मार्ग, प्रभुभक्ति मनको का महान फल, 'मन महिलानु वहाला स्थिरनाका उपाय, सद्गुणोसे योग्यता प्राप्त उपर का पुन' विवेचन करना ३४१ ३९७ क्षायिक ममकित, उसके निषेधक जीवोके ३८१ वैराग्ययुक्त पुस्तकें पढ़ें ३४२ प्रति केवल निष्काम करुणादृष्टि, यही ३८२ पराग्यवक अध्ययन, मतमतातरका त्याग ३४२ परमार्थ मार्ग है, ज्ञानीपुरुपको अवज्ञा और ३८३ विचारवानको मसार मर्वथा क्लेशरूप गुणगानका फल, क्षायिक समकितकी तेरहवें गुणस्थान स्वर्तीका स्वरूप आश्चर्यकारक व्याख्या, व्याख्याओको ३८४ 'दु पम कलियुगमे' जिसका चित्त विह्वलता, सत्पुरुपके आशयसे जानना सफल, माननेका विलेप आदिरो अलिप्त रहा वह 'दूसरा फल नहीं पर दशाका फल है, उपदेशक श्रीराम' है, लगभग १७ घटे उपाधि-योग, जीव अपनी दशा विचारे, उपर्युक्त शब्द अनादि-कालका दृष्टिभ्रम दूर नहीं हुआ! ३४५ आगम ही है। ३४९ ३८५ मं जैसे ही शादी है, ज्ञानोके मधमे ३९८ कालकी दुष्पमता, परमार्थवृत्तिकी क्षीणता, अपने जैसी दशा पल्पना, हमारा चित्त कालका स्वरूप देखकर अनुकपा, दुर्लभ नेत्रगंगा, धन्यल्प-नाम हममें यह पुरुषका योग, वर्तमानमें जीवोका कल्याण उपाधि-योग हमसे ही, परमार्थ किस प्रकारके मप्रदायसे ३४८ ૩૪૨
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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