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________________ ३५४ श्रीमद राजचन्द्र सिवाय दूसरे मुमुक्षु जीवोको इच्छित अनुकम्पासे परमार्थवृत्ति दी नही जा सकती, यह भी बहुत बार चित्तको खलता है । चित्त बन्धनवाला न हो सकनेसे जो जीव ससारके सम्बन्धसे स्त्री आदि रूपमे प्राप्त हुए हैं उन जोवोकी इच्छा को भी क्लेश पहुँचानेकी इच्छा नही होती, अर्थात् उसे भी अनुकपासे और माता-पिता आदिके उपकारादि कारणोसे उपाधियोगका प्रवलतासे वेदन करते हैं, और जिस जिसकी जो कामना है वह वह प्रारब्धके उदयमे जिस प्रकारसे प्राप्त होना सर्जित है उस प्रकारसे प्राप्त होने तक निवृत्ति ग्रहण करते हुए भी जीव 'उदासीन' रहता है, इसमे किसी प्रकारकी हमारी सकामता नही है, हम इन सबमे निष्काम ही हैं, ऐसा है । तथापि प्रारब्ध उस प्रकारका बन्धन रखनेके लिये उदयमे रहता है, इसे भी दूसरे मुमुक्षुकी परमार्थवृत्ति उत्पन्न करनेमे अवरोधरूप मानते है । जबसे आप हमे मिले है, तबसे यह बात कि जो ऊपर अनुक्रमसे लिखी है, वह बतानेको इच्छा थी, परन्तु उसका उदय उस प्रकारमे नही था, इसलिये वैसा नही हो सका, अब वह उदय बताने योग्य होनेसे सक्षेपसे बताया है, जिसे वारवार विचार करनेके लिये आपको लिखा है । बहुत विचार करके सूक्ष्मरूपसे हृदयमे निर्धार रखने योग्य प्रकार इसमे लिखा गया है । आप और गोशलिया के सिवाय इस पत्रका विवरण जाननेके योग्य अन्य जीव अभी आपके पास नही है, इतनी बात स्मरण रखनेके लिये लिखी है। किसी बातमे शब्दोके सक्षेपसे यह भासित होना सम्भव हो कि अभी हमे किसी प्रकारकी कुछ ससारसुखवृत्ति है, तो वह अर्थ फिर विचार करने योग्य है । निश्चय है कि तीनो कालमे हमारे सम्बन्धमे वह भासित होना आरोपित समझने योग्य है, अर्थात् ससारसुखवृत्तिसे निरन्तर उदासीनता ही है । ये वाक्य, आपका हमारे प्रति कुछ कम निश्चय है अथवा होगा तो निवृत्त हो जायेगा ऐसा समझकर नही लिखे है, अन्य हेतुसे लिखे हैं । इस प्रकारसे यह विचार करने योग्य, वारवार विचार करके हृदयमे निर्धार करने योग्य वार्ता सक्षेपसे यहाँ तो परिसमाप्त होती है । 1 इस प्रसग सिवाय अन्य कुछ प्रसंग लिखना चाहे तो ऐसा हो सकता है, तथापि वे बाकी रखकर इस पत्रको परिसमाप्त करना योग्य भासित होता है । निष्काम जगतमे किसी भी प्रकारसे जिसकी किसी भी जीवके प्रति भेददृष्टि नही है, ऐसे श्री आत्मस्वरूप के नमस्कार प्राप्त हो । 'उदासीन' शब्दका अर्थ समता है । ३९९ बबई, श्रावण, १९४८ मुमुक्षुजन सत्सगमे हो तो निरन्तर उल्लासित परिणाममे रहकर आत्मसाधन अल्पकालमे करें सकते हैं, यह वार्ता यथार्थ है, और सत्सग के अभावमे समपरिणति रहना विकट है । तथापि ऐसे करनेमे ही आत्मसाधन रहा होनेसे चाहे जैसे अशुभ निमित्तोमे भी जिस प्रकारसे समपरिणति आये उस प्रकारसे प्रवृत्ति करना यही योग्य है । ज्ञानीके आश्रयमे निरतर वास हो तो सहज साधनसे भी समपरिणाम प्राप्त होता है, इसमे तो निर्विवादता है, परन्तु जब पूर्वकर्मके निबन्धनसे प्रतिकूल निमित्तोमे निवास प्राप्त हुआ है, तब चाहे किसी तरह भी उनके प्रति अद्वेष परिणाम रहे ऐसी प्रवृत्ति करना यही हमारी वृत्ति है, ओर यही शिक्षा है । वे जिस प्रकार से सत्पुरुषके दोषका उच्चारण न कर सकें उस प्रकारसे यदि आप प्रवृत्ति कर सकते हो तो विकटता सहन करके भी वैसी प्रवृत्ति करना योग्य है । अभी हमारी आपको ऐसी कोई शिक्षा नही है कि आपको उनसे बहुत प्रकारसे प्रतिकूल वर्तन करना पड़े। किसी बावतमे वे आपको
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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