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________________ श्रीमद राजचन्द्र थोडे ही वाक्योमे लिखनेका सोचा था ऐसा यह पत्र विस्तृत हो गया है, और बहुत ही सक्षेपमे उसे लिखा है, फिर भी कितने ही प्रकारसे अपूर्ण स्थितिमे यह पत्र यहाँ परिसमाप्त करना पड़ता है । ३५२ आपको तथा आप जैसे दूसरे जिन जिन भाइयोका प्रसग है उन्हे यह पत्र, विशेषत प्रथम भाग वैसे प्रसगमे स्मरणमे रखना योग्य है, और बाकीका दूसरा भाग आपको और दूसरे मुमुक्षु जोवोको वारवार विचारना योग्य है | यहाँ उदय-गर्भमे स्थित समाधि है । कृष्णदास सगमे 'विचारसागर' के थोडे भी तरंग पढनेका प्रसग मिले तो लाभरूप है । कृष्णद्वासको आत्मस्मरणपूर्वक यथायोग्य | "प्रारब्ध देही " बम्बई, श्रावण वदी १४, रवि, १९४८ स्वस्ति श्री सायला ग्राम शुभस्थानमे स्थित परमार्थके अखण्ड निश्चयी, निष्काम स्वरूप ( ं) के वारवार स्मरणरूप, मुमुक्षु पुरुषोके द्वारा अनन्य प्रेमसे सेवन करने योग्य, परम सरल और शातमूर्ति श्री 'सुभाग्य' के प्रति, ३९८ ॐ श्री 'मोहमयी' स्थानसे निष्काम स्वरूप तथा स्मरणरूप सत्पुरूषके विनयपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । जिनमे प्रेमभक्ति प्रधान निष्कामरूपसे है, ऐसे आपसे लिखित बहुत से पत्र अनुक्रमसे प्राप्त हुए हैं । आत्माकारस्थिति और उपाधियोगरूप कारण से मात्र उन पत्रोको पहुँच लिखी जा सकी है । यहाँ श्री रेवाशकरकी शारीरिक स्थिति यथायोग्यरूप रहती न होनेसे, और व्यवहार सम्बन्धी कामकाजके बढ जानेसे उपाधियोग भी विशेष रहा है, और रहता है, जिससे इस चातुर्मासमे बाहर निकलना अशक्य हुआ है, और इसके कारण आपका निष्काम समागम प्राप्त नही हो सका। फिर दिवालीके पहले वैसा योग प्राप्त होना सम्भव नही है । आपके लिखे कितने ही पत्रोमे जीवादिके स्वभाव और परभावके बहुत से प्रश्न आते थे, इस कारण - से उनके उत्तर लिखे नही जा सके। दूसरे भी जिज्ञासुओंके पत्र इस दौरान बहुत मिले है । प्राय उनके लिये भी वैसा ही हुआ है । अभी जो उपाधियोग प्राप्त हो रहा है, यदि उस योगका प्रतिबन्ध त्यागनेका विचार करें तो वैसा हो सकता है, तथापि उस उपाधियोगको भोगनेसे जो प्रारब्ध निवृत्त होनेवाला है, उसे उसी प्रकारसे भोगने के सिवाय दूसरी इच्छा नही होती, इसलिये उसी योगसे उस प्रारब्धको निवृत्त होने देना योग्य है, ऐसा समझते है, और वैसी स्थिति है । शास्त्रोमे इस कालको अनुक्रमसे क्षीणता योग्य कहा है, और वैसे ही अनुक्रमसे हुआ करता है । यह क्षीणता मुख्यत परमार्थं सम्बन्धी कही है । जिस कालमे अत्यन्त दुर्लभतासे परमार्थको प्राप्ति हो वह काल दुम कहने योग्य है । यद्यपि सर्व कालमे जिनसे परमार्थप्राप्ति होती है. ऐसे पुरुषोका योग दुर्लभ ही है, तथापि ऐसे कालमे तो अत्यन्त दुर्लभ होता है । जीवोकी परमार्थवृत्ति क्षीण परिणामको प्राप्त होतो रही है, जिससे उनके प्रति ज्ञानीपुरुषोके उपदेशका बल भी कम होता जाता है, और इससे परपरासे वह उपदेश भी क्षीणताको प्राप्त हो रहा है, इसलिये परमार्थमार्ग अनुक्रमसे व्यवच्छेद होने योग्य काल आ रहा है। इस कालमे और उसमे भी लगभग वर्तमान सदीसे मनुष्यकी परमार्थवृत्ति बहुत क्षीणताको प्राप्त हुई है, और यह बात प्रत्यक्ष है । सहजानन्दस्वामोके समय तक मनुष्योमे जो सरलवृत्ति थी, उसमे और आजकी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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