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________________ श्रीमद राजचन्द्र शम, सवेग, निर्वेद, आस्था और अनुकम्पा इत्यादि सद्गुणोसे योग्यता प्राप्त करना, और किसी समय महात्माके योगसे, तो धर्म प्राप्त हो जायेगा । सत्सग, सत्शास्त्र और सद्व्रत ये उत्तम साधन है । ३४२ ३८१ 'सूयगडागसूत्र' का योग हो तो उसका दूसरा अध्ययन तथा उदकपेढालवाला अध्ययन पढनेका अभ्यास रखिये । तथा 'उत्तराध्ययन' के कुछ एक वैराग्यादिक चरित्रवाले अध्ययन पढते रहिये, और प्रभातमे जल्दी उठने की आदत रखिये, एकातमे स्थिर बैठनेका अभ्यास रखिये । माया अर्थात् जगत, लोकका जिनमे अधिक वर्णन किया है वैसी पुस्तकें पढने की अपेक्षा, जिनमे विशेषत. सत्पुरुषोके चरित्र अथवा वैराग्यकथाएँ है ऐसी पुस्तकें पढने का भाव रखिये | ३८२ और जिससे वैराग्यको वृद्धि हो उसका अध्ययन विशेषरूपसे रखना, मतमतांतरका त्याग करना, जिससे मतमतातर की वृद्धि हो वैसा पठन नही करना । असत्सगादिमे उत्पन्न होतो हुई रुचि दूर होनेका विचार वारवार करना योग्य है । ३८३ बबई, जेठ, १९४८ जो विचारवान पुरुषको सर्वथा क्लेशरूप भासता है, ऐसे इस ससारमे अब फिर आत्मभावसे जन्म न की निश्चल प्रतिज्ञा है । अब आगे तोनो कालमे इस ससारका स्वरूप अन्यरूपसे भासमान होने योग्य नही है, और भासित हो ऐसा तीनो कालमे सम्भव नही है । यहाँ आत्मभावसे समाधि है, उदयभावके प्रति उपाधि रहती है । श्री तीर्थंकरने तेरहवे गुणस्थानकमे रहनेवाले पुरुषका नीचे लिखा स्वरूप कहा है जिसने आत्मभाव के लिये सर्व ससार संवृत किया है अर्थात् जिसके प्रति सर्व ससारकी इच्छा के आका निरोध हुआ है, ऐसे निग्रंथको —— सत्पुरुषको - तेरहवे गुणस्थानकमे कहना योग्य है । मनसमितिसे युक्त, वचनसमितिसे युक्त, कायसमिति से युक्त, किसी भी वस्तुका ग्रहण- त्याग करते हुए समितिसे युक्त, दीर्घशंकादिका त्याग करते हुए समितिसे युक्त, मनको सकोचनेवाला, वचनको सकोचनेवाला, कायाको सकोचनेवाला, सर्व इन्द्रियोके सयमसे ब्रह्मचारी, उपयोगपूर्वक चलनेवाला, उपयोगपूर्वक खडा रहनेवाला, उपयोगपूर्वक बैठनेवाला, उपयोगपूर्वक शयन करनेवाला, उपयोगपूर्वक बोलनेवाला, उपयोगपूर्वक आहार लेनेवाला और उपयोगपूर्वक श्वासोच्छ्वास लेनेवाला, आँखको एक निमिषमात्र भी उपयोगरहित न चलानेवाला अथवा उपयोगरहित जिसकी क्रिया नही है ऐसे इस निर्ग्रन्थकी एक समयमे क्रिया बाँधी जाती है, दूसरे समयमे भोगी जाती है, तीसरे समय मे वह कर्मरहित होता है, अर्थात् चौथे समयमे वह क्रियासम्बन्धी सर्व चेष्टासे निवृत्त होता है। श्री तीर्थंकर जैसेको कैसा अत्यन्त निश्चल, [ अपूर्ण ] ३८४ बंबई, आषाढ सुदी ९, १९४८ शब्दादि पाँच विषयोकी प्राप्तिकी इच्छासे जिनके चित्तमे अत्यन्त व्याकुलता रहती है, ऐसे जीव जिस कालमे विशेषरूपसे दिखायी देते हैं, वह यह 'दुषम कलियुग' नामका काल है। उस कालमे जिसे परमार्थ के प्रति विह्वलता नही हुई, चित्त विक्षेपको प्राप्त नही हुआ, सगसे प्रवर्तनभेद प्राप्त नही हुआ,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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