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________________ २५ वो वर्ष ३३१ ३५० बबई, चैत्र सुदी ६, रवि, १९४८ ज्ञानोको 'सर्वसग परित्याग करनेका क्या हेतु होगा? प्रणाम प्राप्त हो। ३५१ बबई, चैत्र सुदी ९, बुध, १९४८ वाह्योपाधि प्रसंग रहता है। यथासम्भव सद्विचारका परिचय हो, ऐसा करनेके लिये उपाधिमे उलझे रहनेसे योग्यरूपसे प्रवृत्ति न हो सके, इस बातको ध्यानमे रखने योग्य ज्ञानियोने जाना है। प्रणाम। ३५२ बबई, चैत्र सुदी ९, बुध, १९४८ शुभोपमायोग्य मेहता श्री ५ चत्रभुज बेचर, आपने अभी सभीसे कटाला आनेके बारेमे जो लिखा है उसे पढकर खेद हुआ । मेरा विचार तो ऐसा रहता है कि यथासम्भव वैसे कटालेका शमन करे और उसे सहन करें। किन्ही दुखके प्रसगोमे ऐसा हो जाता है और उसके कारण वैराग्य भी रहता है, परन्तु जीवका सच्चा कल्याण और सुख तो यो मालूम होता है कि उस सब कटालेका कारण अपना उपार्जित प्रारब्ध है, जो भोगे बिना निवृत्त नही होता, और उसे समतासे भोगना योग्य है। इसलिये मनके कटालेको यथाशक्ति शात करें और उपाजित न किये हए कम , भोगनेमे नही आते, ऐसा समझकर दूसरे किसीके प्रति दोषदृष्टि करनेकी वृत्तिको यथाशक्ति शात करके समतासे प्रवृत्ति करना योग्य लगता है, और यही जीवका कर्तव्य है। लि० रायचदके प्रणाम। ३५३ ' बबई, चैत्र सुदी १२, शुक्र, १९४८ ॐ आप सबका मुमुक्षुतापूर्वक लिखा हुआ पत्र मिला है । समय मात्रके लिये भी अप्रमत्तधाराका विस्मरण न करनेवाला ऐसा आत्माकार मन वर्तमान समयमे उदयानुसार प्रवृत्ति करता है, और जिस किसी भी प्रकारसे प्रवृत्ति की जाती है, उसका कारण पूर्वमे निवन्धन करनेमे आया हुआ उदय ही है । इस उदयमे प्रीति भी नही है, और अप्रीति भी नही है। समता है, करने योग्य भी यही है । पत्र ध्यानमे है। यथायोग्य । ३५४ बवई, चैत्र सुदी १३, रवि, १९४८ समकितकी स्पर्शना कब हुई समझी जाये ? उस समय केसी दशा रहती है ? इस विषयका अनुभव करके लिखियेगा। ससारी उपाधिका जैसे होता हो वैसे होने देना, कर्तव्य यही है, अभिप्राय यही रहा करता है। धीरजसे उदयका वेदन करना योग्य है। १. देखें आफ ३३४ और ६६३
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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