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________________ ३२८ श्रीमद् राजचन्द्र - हमे तो मात्र अपूर्व सत्के ज्ञानमे ही रुचि रहती है। दूसरा जो कुछ किया जाता है या जिसका अनुसरण किया जाता है, वह सव आसपासके वधनको लेकर किया जाता है। । अभी जो कुछ व्यवहार करते है, उसमे देह और मनको बाह्य उपयोगमे प्रवृत्त करना पड़ता है। आत्मा उसमे प्रवृत्त नही होता । क्वचित् पूर्वकर्मानुसार प्रवृत्त करना पड़ता है, जिससे अत्यन्त आकुलता आ जाती है। जिन कर्मोका पूर्वमे निबधन किया गया है, उन कर्मोसे निवृत्त होनेके लिये, उन्हे भोग लेनेके लिये, अल्प कालमे भोग लेनेके लिये, यह व्यापार नामके व्यावहारिक कामका दूसरेके लिये सेवन करते हैं। ___ अभी जो व्यापार करते हैं उस व्यापारके विषयमे हमे विचार आया करता था, और उसके बाद अनुक्रमसे उस कार्यका आरभ हुआ, तवसे लेकर अब तक दिन प्रतिदिन कार्यकी कुछ वृद्धि होती रही है। हमने इस कार्यको प्रेरित किया था, इसलिये तत्सम्बन्धी यथाशक्ति मजदूरी जैसा काम भी करनेका रखा है। अब कार्यकी सीमा वहुत बढ जानेसे निवृत्त होनेकी अत्यन्त बुद्धि हो जाती है । परन्तु को दोषवुद्धि आ जानेका सम्भव है, वह अनत ससारका कारण को हो ऐसा जानकर यथासम्भव चित्तका समाधान करके वह मजदूरी जैसा काम भी किये जाना ऐसा अभी तो सोचा है । इस कार्यकी प्रवृत्ति करते समय हमारी जितनी उदासीन दशा थी, उससे आज विशेष है । और इसलिये हम प्राय. उनकी वृत्तिका अनुसरण नही कर सकते, तथापि जितना हो सकता है उतना अनुसरण तो जैसे-तैसे चित्तका समाधान करके करते आये हैं। ___ कोई भी जीव परमार्थकी इच्छा करे और व्यावहारिक सगमे प्रीति रखे, और परमार्थ प्राप्त हो, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता। पूर्वकर्मको देखते हुए तो इस कार्यसे निवृत्ति अभी हो ऐसा दिखायी नही देता। इस कार्यके पश्चात् 'त्याग' ऐसा हमने तो ज्ञानमे देखा था, और अभी ऐसा स्वरूप दीखता है, इतनी आश्चर्यकी बात है। हमारी वृत्तिको परमार्थके कारण अवकाश नही है ऐसा होनेपर भी बहुतसा समय इस काममे विताते हैं, और इसका कारण मात्र इतना हो है कि उन्हे दोषबुद्धि न आये। तथापि हमारा आचरण ही ऐसा है, कि यदि जीव उसका ख्याल न कर सके तो इतना काम करते हुए भी दोषबुद्धि ही रहा करे। ३४० बबई, फागुन सुदी १५, रवि, १९४८ ... जिसमे चार प्रश्न लिखे गये है, तथा जिसमे स्वाभाविक भावके विषयमें जिनेंद्रका जो उपदेश है उस विषयमे लिखा है, वह पत्र कल प्राप्त हुआ है। लिखे हुए प्रश्न बहुत उत्तम है, जो मुमुक्षु जीवको परम कल्याणके लिये उठने योग्य है। उन प्रश्नोंके उत्तर बादमे लिखनेका विचार है। जिस ज्ञानसे भवात होता है उस ज्ञानकी प्राप्ति जीवके लिये बहुत दुर्लभ है । तथापि वह ज्ञान स्वरूपसे तो अत्यन्त सुगम है, ऐसा जानते हैं। उस ज्ञानके सुगमतासे प्राप्त होनेमे जिस दशाकी जरूरत है उस दशाको प्राप्ति अति अति कठिन है, और उसके प्राप्त होनेके जो दो कारण हैं उनकी प्राप्तिके विना जीवको अनतकालसे भटकना पड़ा है, जिन दो कारणोकी प्राप्तिसे मोक्ष होता है। प्रणाम।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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