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________________ ३२० श्रीमद् राजचन्द्र ३२० वबई, माघ सुदी १३, बुध, १९४८ (राग प्रभाती) *जीव नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा, पुग्गलाधार नहीं तास रंगी। पर तणो ईश नही अपर ऐश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी॥ (श्री सुमतिनाथ स्तवन–देवचद्रजी) प्रणाम पहुंचे। ३२१ बबई, माघ वदी २, रवि, १९४८ अत्यत उदास परिणाममे रहे हुए चैतन्यको ज्ञानी प्रवृत्तिमे होनेपर भी वैसा ही रखते हैं; तो भी कहते है कि माया दुस्तर है, दुरत है, क्षणभर भो, एक समय भी इसे आत्मामे स्थापन करना योग्य नही है। ऐसी तीव्र दशा आनेपर अत्यत उदास परिणाम उत्पन्न होता है, और वैसे उदास परिणामकी जो प्रवृत्ति-(गार्हस्थ्य सहितकी)-वह अवधपरिणामी कहने योग्य है । जो बोधस्वरूपमे स्थित है वह इस तरह कठिनतासे प्रवृत्ति कर सकता है क्योकि उसकी विकटता परम है। जनकराजाकी विदेहीरूपसे जो प्रवृत्ति थी वह अत्यत उदासीन परिणामके कारण रहती थी, प्राय उन्हे वह सहजस्वरूपमे थो, तथापि किसी मायाके दुरन्त प्रसगमे, समुद्रमे जैसे नाव थोडोसी डोला करती है वैसे उस परिणामको चलायमानताका सभव होनेसे प्रत्येक मायाके प्रसंगमे जिसकी सर्वथा उदासीन अवस्था है ऐसे निजगुरु अष्टावक्रकी शरण अपनानेसे मायाको आसानीसे तरा जा सकता था, क्योकि महात्माके आलवनकी ऐसी ही प्रवलता है। रविवार, १९४८ लौकिकदृष्टिसे आप और हम प्रवर्तन करेंगे तो फिर अलौकिकदृष्टिसे कौन प्रवर्तन करेगा? आत्मा एक है या अनेक है कर्ना है या अकर्ता है. जगतका कोई कर्ता है या जगत स्वत. है, इत्यादि विपय क्रमश. सत्सगमे समझने योग्य है, ऐसा मानकर इस विषयमे अभी पत्र द्वारा नही लिखा ३२२ गया है। सम्यकप्रकारसे ज्ञानीमे अखड विश्वास रखनेका फल निश्चय ही मुक्ति है। आपको ससारसवधी जो जो चिंताएँ हैं उन्हे प्रायः हम जानते हैं, और इस विषयमे आपको अमुक अमुक विकल्प रहा करते हैं उन्हे भी जानते हैं । और आपको सत्सगके वियोगके कारण जो परमार्थाचता भी रहती हे उसे भी जानते हैं। दोनो प्रकारके विकल्प होनेसे आपको आकुल व्याकुलता प्राप्त होती हो, इसमे भी आश्चर्य नही लगता अथवा यह असभवरूप मालूम नही होता। अब इन दोनो प्रकारोके लिय हमारे मनमे जो कुछ हे उसे स्पष्ट शब्दोमे नीचे लिखनेका प्रयत्न किया है । ससार सम्बन्धी आपको जो चिता है उसे उदयके अनुसार वेदन करें, सहन करे । यह चिंता होनेका कारण ऐसा कोई कर्म नही है कि जिसे दूर करनेके लिये प्रवृत्ति करते हुए ज्ञानी पुरुषको बाधा न आये। जबसे यथार्थ बोधकी उत्पत्ति हुई है, तबसे किसो भो प्रकारके सिद्धियोगसे या विद्याके योगसे स्वसम्बन्धी या परसम्बन्धी सासारिक साधन न करनेको प्रतिज्ञा है, और इस प्रतिज्ञाके पालनमे एक पलको भी मदता *भावार्थ-जीव पौद्गलिक पदार्थ नहीं है, पुद्गल नहीं है, पुद्गलका आधार नहीं है, और वह पुद्गलके रगवाल नहीं है, अपनो स्वल्पमत्ताके सिवायजो कुछ अन्य है उसका स्वामी नहीं है, क्योकि परका ऐश्वर्य स्वरूपम नहीं होता । वस्तुधर्मसे देखते हुए किमी कालमे भी वह परसगी भी नही ह ।।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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