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________________ परम पूज्य श्री सुभाग्य, ग t J 11 २४. वॉ वर्ष २८६- ॐ सत् 15.1 "हम परदेशी पंखी साधु, आरे देशके नाहीं रे ।”र्ण एक प्रश्नके सिवाय बाकीके प्रश्नोका उत्तर जान बूझकर नही लिख सका । 'काल', क्या खाता है? इसका उत्तर तीन प्रकारसे लिखता हूँ - सामान्य उपदेशमे काल, क्या खाती है इसका उत्तर यह है कि 'वह प्राणीमात्रकी आयु खाता है | 1 व्यवहारनयसे. काल पुराना' खाता है, 25 2161-17 7 सि निश्चयनयसे काल मात्र पदार्थका रूपातर करता है, पर्यायातर करता है । ०८अन्तिम् दो,उत्तर-अधिक विचार करनेसे मेल खा सकेगे । “व्यवहारनयसे काल 'पुराना' खाता है" ऐसा जो लिखा है उसे फिर नीचे विशेष स्पष्ट किया है ५ "काल 'पुराना' खाता है" - 'पुराना', अर्थात् क्या ? जो वस्तु एक समयमे उत्पन्न होकर दूसरे समयमे रहती है वहु वस्तु पुरानी मानी जाती है। (ज्ञानीको अपेक्षासे) उस वस्तुको तीसरे समयमे, चौथे समयमे, यो सख्यात, असंख्यात समयमे, अनन्त समयमे काल बदलता ही रहता है । दूसरे समयसे वह जैसी होतो. है, वैसो तीसरे समयमे नही होती, अर्थात् यह कि दूसरे समय मे पदार्थ का जो स्वरूप था उसे खाकर तीसरे समयमे कालने पदार्थको दूसरा रूप दिया, अर्थात् पुराना वह खा गया । पहले, समयमे पदार्थ उत्पन्न हुआ, और उसी समय, काल उसे, खा जाये यो व्यवहारनयसे नही हो सकता । पहले समय मे प्रदार्थका नया - पन माना जाता है, परन्तु उस समय काल उसे खा नही जाता, दूसरे समयमे उसे बदलता हैं,,इसलिये, पुरानेपनको वह खाता है, ऐसा कहा है ! ---, 2 " निश्चयनयसे पदार्थ मात्र रूपातरको हो प्राप्त होता है, कोई भी 'पदार्थ' किसी भी कालमे सर्वथा नाशको प्राप्त ही, नही होता, ऐसा सिद्धात है, और यदि पदार्थ सर्वथा नाशको प्राप्त हो जाता, तो आज कुछ भी न होता । इसलिये काल खाता नही, परन्तु रूपातर करता है, ऐसा कहा है । तोन प्रकारके उत्तरोमे : पहला उत्तर समझना 'सभीको' सुलभ है कलने 217 5 · यहाँ भी दशाके प्रमाणमे बाह्य उपाधि विशेष है । आपने कितने ही व्यावहारिक (यद्यपि शास्त्रसम्बन्धी) प्रश्न इस बार लिखे थे, परन्तु चित्त वैसा पढनेमे भी अभी पूरा नही रहता, इसलिये उत्तर किस तरह लिखा जा सके ? rl """ 11 1 375, J1 "j ३०९ वाणिया, आसोज सुदी, १९४७ 5. " २८७ 'ववाणिया, आसोज वदी १, रवि, १९४७, “पूर्वापरं अविरुद्ध भगवत्सम्वन्धी ज्ञानको प्रगट करने के लिये जब तक उसकी इच्छा नही है, तक किसीसे अधिक प्रसग करनेमे नहीं आता, इसे आप जानते हैं । 'जब तक हम अपने अभिन्नरूप हरिपदको नही मानते तब तक प्रगट मार्ग नही कहेंगे । आप भी जो हमें जानते हैं, उनके सिवाय आप नाम, स्थान और गॉवसे हमे अधिक व्यक्तियोंसे परिचित न कीजियेगा । एक अनन्त है, और जो अनन्त है वह एक है । דין ~~ ا 2 3 २८८ ववाणिया, आसोज वदी ५, १९४७ आदिपुरुष लीला शुरू करके बैठा है' } एक आत्मवृत्तिके सिवाय हमारे लिये 'नया पुराना ती' कहाँ है ? और उसे लिखने जितना मनको अवकाश भी कहाँ है ? नही तो सब कुछ नया ही है, और सब कुछ पुराना ही है । 1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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