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________________ श्रीमद राजचन्द्र जो, वैसे प्रवृत्ति नही करते वे अभी तो अप्रगट रहना चाहते हैं । आश्चर्यकारक तो यह है कि कलिकालने थोडे समयमे परमार्थको घेरकर अनर्थको परमार्थ बना दिया है। ३०६ प्र २७६ सविस्तर पत्र और धर्मजवाला पत्र प्राप्त हुआ । : 47 1 अभी चित्त परम उदासीनतामे रहता है । --लिखने आदिमे प्रवृत्ति नही होती । जिससे आपको विशेष, विस्तारसे कुछ लिखा नही जा सकता है। धर्मज लिखना कि आपसे मिलनेके लिये मे (अर्थात् अवालाल) उत्कुठित हूँ । आप जैसे पुरुष के सत्संग मे आनेके लिये मुझे, किसी श्रेष्ठ, पुरुषकी आज्ञा है । इसलिये यथासंभव दर्शन करनेके लिये आऊँगा । ऐसा होनेमे कदाचित् किसी कारण से विलम्ब हुआ तो भी आपका सत्संग करनेकी मेरी इच्छा मद नही होगी । इस आशय से लिखियेगा । अभी किसी भी प्रकारसे उदासीन ; रहना योग्य नही है । 1 " "हमारे विषयमे अभी कोई भी बात उन्हे नही लिखनी है । केपी य २७७ 1 = ववाणिया, भादो, वदी, ७, १९४७ चित्त उदास रहता है, कुछ अच्छा नही लगता; और जो कुछ अच्छा नहीं लगता, वही सब दिखायी देता है, वही सुनायी देता है। तो अब क्या करे ? मन किसी कार्यमे प्रवृत्ति नही कर सकता । जिससे प्रत्येक कार्यं स्थगित करना पडता है। कुछ पढ़ने, लिखने या जनपरिचयमे रुचि नही होती । प्रचलित मतके, प्रकारकी बात सुनायी पड़ती है कि हृदयमे मृत्युसे अधिक वेदना होती है । इस स्थितिको या तो आप जानते हैं या स्थिति भोगनेवाला जानता है, और हरि जानता है । 1 " 57 551 २७८... -~-~~ 2 ववाणिया, भादो वदी १०, रवि, १९४७, "जो आत्मामे रमण कर रहे हैं, ऐसे निर्ग्रथ मुनि भी निष्कारण भगवान की भक्ति प्रवृत्ति करते हैं, क्योकि भगवान के गुण ऐसे ही हैं ।" C 2 -1 52 Tag SCPR GEF 72 11 A C 9.4 ववाणिया, भादो वदी, ७, १९४७ 6 7 २७९ वाणिया, भादो वदी ११, सोम, १९४७ / २ जीवको जब तक सतका योग न हो, तब तक मतमतातरसे मध्यस्थ रहना योग्य है ।" - ン 1. ल नत्र २८० ववार्णिया, भादो वदी १२, मंगल, १९४७ बताने जैसा तो मन है, कि जो सत्स्वरूपमे अखड स्थिर हुआ है (नाग जैसे बासुरीपर), तथापि उस दशाका वर्णन करनेको सत्ता सर्वाधार हरिने वाणीमे पूर्णरूपसे नही दी हैं, और लेखमे तो उस वाणीका अनंतवाँ भाग' मुश्किलसे' आ सकता हैं, ऐसी वह दशा उस सबके कारणभूत पुरुषोत्तमस्वरूपमे हमारी, आपकी अनन्य प्रेमभक्ति अखड रहे, वह प्रेमभक्ति परिपूर्ण प्राप्त हो, यही प्रयाचना चाहकर अभी अधिक नही ' लिखता' । ' ir श्रीमद्भागवत,' स्कन्ध १, अ० ७, श्लोक १०१ 1 4- M " ފ 120 आत्मारामाच्च मुनयो निर्ग्रन्या' अप्युरुक्रमे 1. कुर्वन्त्यर्हेतुको भक्तिमित्थभूतगुणो, हरि, ।। स्कुषु १, अ० ७, ब्लोक, १९ i " 73 पहि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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