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________________ ३०६. श्रीमद् राजचन्द्र , जो वैसे प्रवृत्ति नही ,करते वे अभी तो अप्रगट रहना चाहते हैं। आश्चर्यकारक तो यह है कि कलिकालने थोडे समयमे परमार्थको घेरकर अनर्थको परमार्थ बना दिया है। . .. .२७६ : .. inववाणिया, भादो वदी:9,:१९४७ - सविस्तर पत्र और धर्मजवाला पत्र प्राप्त हुआ .. . 275 अभी चित्त परम उदासीनतामे रहता है ।-लिखने-आदिमे प्रवृत्ति नहीं होती। जिससे आपको विशेप, विस्तारसे कुछ लिखा नही जा सकता है। धर्मज़ लिखना कि आपसे मिलनेके लिये मै (अर्थात् अबालाल) उत्कठित हूँ। आप जैसे पुरुषके सत्सगमे,आनेके लिये मुझे, किसी श्रेष्ठ पुरुषकी आज्ञा है । इसलिये यथासभव दर्शन करनेके लिये आऊँगा । ऐसा होनेमे कदाचित् किसी कारणसे विलम्ब हुआ तो भी आपकार सत्सग करनेकी मेरी इच्छा मद नही होगी। इस आशयसे लिखियेगा। अभी किसी भी प्रकारसे उदासीन, रहना योग्य नही है। ... हमारे विषयमे अभी कोई भी बात उन्हे नहीं लिखनी है। - ववाणिया, भादो वदी,७, १९६७४) .: चित्त उदास रहता है, कुछ अच्छा नही लगता, और जो कुछ अच्छा नही लगता वही सब दिखायी देता है, वही सुनायी देता है। तो अब क्या करे। मन किसी कार्यमे प्रवृत्ति नही कर सकता । जिससे, प्रत्येक कार्य स्थगित करना पड़ता है। कुछ,पढ़ने, लिखने या जनपरिचयमे रुचि नही होती । -प्तचलित मतके, प्रकारकी बात सुनायी पडती है कि हृदयमे मृत्युसे अधिक वेदना होती हैं। इस स्थितिको या तो आप जानते हैं या स्थिति भोगनेवाला जानता है, और हरि जानता है। २७८ 17. ववाणिया, भादो वदी १०, रवि, १९४७ , .. "जो आत्मामे रमण कर रहे हैं, ऐसे निग्रंथ मुनि भी निष्कारण भगवानकी भक्तिमें प्रवृत्ति करते हैं, २७७ क्योकि 17 - । - श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १, अ० ७, श्लोक १०, . . . , . , , २७९ . . ववाणिया भादोः वदी ११, सोम, १९४७ ___ जीवको जब तक सतका योग न हो, तब तक मतमतातरमें मध्यस्थ रहना योग्य है । TWITL 3. - - २८ वाणिया, भादो वदी १२. मगले. १९४० बताने जैसा तो मन है, कि जो सत्स्वरूपमे अखड स्थिर हुआ है (नाग जैसे बासुरीपर), तथापि उस दशाका वर्णन करनेको सत्ता सर्वाधार हरिने वाणीमे पूर्णरूपसे नही दी हैं, और लेखमे तो उस वाणीका अनंतवा भाग मुश्किलसे आ सकता है, ऐसी वह दशा उस सबके कारणभूत पुरुषोत्तमस्वरूपमे हमारी, आपको अनन्य प्रेमभक्ति अखड़ रहे, वह प्रेमभक्ति परिपूर्ण प्राप्त हो, यही प्रयाचना चाहकर अभी अधिक नही लिखता| Fir .. i 3 ।BairirikRTIST5. , ... आत्मारामाच मुनयो निग्रन्या अप्युरक्रम.।,, ..":: . info कुर्वन्त्यहतुकी भक्तिमित्यभूतगुणो हरिः । स्कुषः १, ३० ७, लोक: १९ र
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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