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________________ २४ वा वर्ष २९९ काळदोष कळियो थयो, नहि मर्यादाधर्म। तोय नहीं व्याकुळता, जुओ प्रभु मुज कर्म ॥९॥ सेवाने प्रतिकूळ जे, ते बंधन नथी त्याग। देहेन्द्रिय माने नहीं, करे बाह्य पर राग ॥१०॥ तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयन यम नाहीं। नहि उदास अनभक्तथो, तेम गृहादिक मांहीं ॥११॥ अहंभावथो रहित नहि, स्वधर्म संचय नाहीं। नथी निवृत्ति निर्मळपणे, अन्य धर्मनी कांई ॥१२॥ एम अनन्त प्रकारथी, साधन रहित हुंय । नहीं एक सद्गुण पण, मुख बतावं शुंय ? ॥१३॥ केवळ करुणामूर्ति छो, दीनबन्धु दीननाथ । पापी परम अनाथ छु, ग्रहो प्रभुजी हाथ ॥१४॥ अनन्त काळथी आथड्यो, विना भान भगवान । सेव्या नहि गुरु सन्तने, मूक्यु नहि अभिमान ॥१५॥ सन्त चरण आश्रय विना, साधन कर्यां अनेक । पार न तेथी पामियो, ऊग्यो न अंश विवेक ॥१६॥ सहु साधन बन्धन थया, रह्यो न कोई उपाय । सत् साधन समज्यो नही, त्यां बधन शुं जाय ? ॥१७॥ कलिकालसे काल दूपित हो गया है, और मर्यादाधर्म अर्थात् आज्ञा-आराधनरूप धर्म नही रहा है। फिर भी मुझमें व्याकुलता नही है । हे प्रभु । मेरे कर्मको बहुलता तो देखें ॥९॥ सत्सेवाके प्रतिकूल जो बघन है उनका मैंने त्याग नहीं किया है। देह और इन्द्रियों मेरे वशमें नहीं है, और वे वाह्य वस्तुओमें राग करती रहती हैं ॥ १० ॥ तेरे वियोगका दु ख अखरता नहीं है, वाणी और नेत्रोका सयम नही है अर्थात् वे भौतिक विषयोमें अनुरक्त है । हे प्रभु! आपके जो भक्त नही है उनके प्रति और गृहादि सासारिक बन्धनोके प्रति में उदासीन नही हूँ ॥ ११ ॥ मैं अहभावसे मुक्त नही हुआ हूँ, इसलिये स्वभावरूप निजधर्मका सचय नही कर पाया हूँ, और मैं निर्मल भावसे परभावरूप अन्य धर्मसे निवृत्त नही हुआ हूँ ॥ १२ ॥ इस तरह मैं अनत प्रकारसे साधन रहित हूँ। मुझमें एक भी सद्गुण नहीं है। इसलिये हे प्रभु । मैं अपना मुँह आपको क्या बताऊँ ? ॥ १३ ॥ हे प्रभु ! आप तो दीनवधु और दोननाय हैं, तथा केवल करुणामूर्ति है, और मैं परम पापी एव अनाथ हूँ, जाप मेरा हाथ पकड़ें और उद्धार करें ॥ १४ ॥ हे भगवन् । मैं आत्मभानके विना अनतकालसे भटक रहा हूं। मैंने आत्मज्ञानी सतको सद्गुरु मानकर निष्ठापूर्वक उसकी उपासना नही की है और अभिमानका त्याग नही किया है ॥ १५ ॥ मने सतके चरणोके आश्रयके बिना साधन तो अनेक किये है, परन्तु सदसत् तया हेयोपादेयके विवेकके अश मामका भी उदय नही हुआ, जिससे विषम एव अनत ससार परिभ्रमणका अत नहीं हुआ है ॥ १६ ॥ हे प्रभु ! सभी साधन तो वधन हो गये है, और कोई उपाय शेष नहीं रहा है। जब मैं सत् साधनको हो न समस पाया तो फिर मेरा बधन कैसे दूर होगा? ॥ १७ ॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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