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________________ २४ वां वर्ष २९५ एही नहि है कल्पना, एही नहीं विभंग। कई नर पंचमकाळमे, देखो वस्तु अभंग ॥३॥ नहि दे तु उपदेशक, प्रथम लेहि उपदेश। सबसे न्यारा अगम है, वो ज्ञानीका देश ॥४॥ जप, तप और व्रतादि सब, तहाँ लगी भ्रमरूप।. जहाँ लगी नहि सतको, पाई कृपा अनूप ॥५॥ पायाको ए बात है, निज छंदनको छोड़। पिछे लाग सत्पुरुषके, तो सब बधन तोड ॥६॥ तृषातुरको पिलानेकी मेहनत कीजिये। अतृषातुरमे तृषातुर होनेकी अभिलाषा उत्पन्न कीजिये । जिसमे वह उत्पन्न न हो सके उसके लिये उदासीन रहिये। आपका कृपापत्र आज और कल मिला था। स्याद्वादकी पुस्तक खोजनेसे नही मिली। कुछ एक वाक्य अब फिर लिख भेजेंगा। उपाधि ऐसी है कि यह काम नही होता । परमेश्वरको पुसाता न हो तो इसमे क्या करें? विशेष फिर कभी। वि० आ० रायचदके प्रणाम २५९ बबई, श्रावण सुदी ११, बुध, १९४७ परम पूज्यजी, आपका एक पत्र कल केशवलालने दिया। जिसमे यह बात लिखी है कि निरतर समागम रहनेमे ईश्वरेच्छा क्यो न हो? सर्वशक्तिमान हरिकी इच्छा सदैव सुखरूप ही होती है, और जिसे भक्तिके कुछ भी अश प्राप्त हुए हैं ऐसे पुरुषको तो जरूर यही निश्चय करना चाहिये कि "हरिकी इच्छा सदैव सुखरूप ही होती है।" हमारा वियोग रहनेमे भी हरिकी ऐसी ही इच्छा है, और वह इच्छा क्या होगी, यह हमे किसी तरहसे भासित होता है, जिसे समागममे कहेगे। ___ श्रावण वदीमे आपको समय मिल सके तो पाँच-पद्रह दिनके लिये समागमकी व्यवस्था करनेकी इच्छा करूँ। 'ज्ञानधारा' सम्बन्धी मूलमार्ग हम आपसे इस बारके समागममे थोडा भी कहेगे, और वह मार्ग पूरी तरह इसी जन्ममे आपसे कहेगे यो हमे हरिकी प्रेरणा हो ऐसा लगता है। ___ यह उपायको वात न तो कल्पना है और न ही असत्य-मिथ्या है। इसी उपायसे इस पचम कालमें अनेक सत्पुरुषोने अभग वस्तु-अविनाशी आत्माके दर्शनसे अपने जीवनको कृतार्थ किया है ॥३॥ तू दूसरेको उपदेश न दे, तुझे तो पहले अपने आत्मवोधके लिये उपदेश लेनेकी जरूरत है। ज्ञानीका देश तो सबसे न्यारा और अगोचर है अर्थात् ज्ञानीका निवास तो आत्मामें है ।।४॥ __ जब तक सतकी अनुपम कृपा प्राप्त नहीं होती तव तक जप, तप, व्रत, नियम आदि सभी साधन भ्रमरूप है अर्थात् गुरु से जप, तप आदिका रहस्य समझकर उनकी आज्ञासे ही इनकी आराधना सफल होती है ॥५॥ सत (गुरु) कृपाकी प्राप्तिका यह मूल माघार है कि तू स्वच्छन्दको छोड दे, और सत्पुल्पका अनुयायी वन जा, तो सभी कर्मवधन तोडकर तु मोक्षको प्राप्त होगा ।।६।।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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