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________________ २९० श्रीमद् राजचन्द्र कल एक पत्र और आज एक पत्र चि० केशवलालकी ओरसे मिला । पढ़कर कुछ तृषातुरता मिटी। और फिर वैसे पत्रकी आतुरता वर्धमान हुई। __व्यवहारचिंतासे व्याकुलता होनेसे सत्सगके वियोगसे किसी प्रकारसे शाति नही होती ऐसा आपने लिखा वह योग्य ही है । तथापि व्यवहारचिंताकी व्याकुलता तो योग्य नही है। सर्वत्र हरीच्छा बलवान है, यह दृढ करानेके लिये हरिने ऐसा किया है, ऐसा आप नि शक समझे, इसलिये जो हो उसे देखा करे, और फिर यदि आपको व्याकुलता होगी, तो देख लेगे। अब समागम होगा तब इस विषयमे बातचीत करेंगे, व्याकुलता न रखे । हम तो इस मार्गसे तरे है । चि० केशवलाल और लालचन्द हमारे पास आते है। ईश्वरेच्छासे टकटकी लगाये हम देखते हैं। ईश्वर जब तक प्रेरित नही करता तब तक हमे कुछ नही करना है और वह प्रेरणा किये बिना कराना चाहता है । ऐसा होनेसे घडो घडोमे परमाश्चर्यरूप दशा हुआ करती है। केशवलाल और लालचन्द हमारी दशाके अशकी प्राप्तिकी इच्छा करें, इस विषयमे प्रेरणा रहती है। तथापि ऐसा होने देनेमे ईश्वरेच्छा विलबवाली होगी। जिससे उन्हे आजीविकाकी उपाधिमे फंसाया है। और इसलिये हमे भी मनमे यह खटका करता है, परन्तु निरुपायताका उपाय अभी तो नही किया जा सकता। छोटम ज्ञानी पुरुष थे । पदकी रचना बहुत श्रेष्ठ है । 'साकाररूपसे हरिकी प्रगट प्राप्ति' इस शब्दको मै प्राय प्रत्यक्षदर्शन मानता हूँ । आगे जाकर आपके ज्ञानमे वृद्धि होगी। लि० आज्ञाकारी रायचन्द। २५१ बम्बई, जेठ वदी ६, शनि, १९४७ हरीच्छासे जोना है, और परेच्छासे चलना है। अधिक क्या कहे ? लि. आज्ञाकारी। २५२ बम्बई, जेठ सुदी, १९४७ अभी छोटमकृत पदसग्रह इत्यादि पुस्तकें पढनेका परिचय रखिये। इत्यादि शब्दसे ऐसी पुस्तकें समझें कि जिनमे सत्सग, भक्ति और वीतरागताके माहात्म्यका वर्णन किया हो । जिनमे सत्सगके माहात्म्यका वर्णन किया हो ऐसो पुस्तकें, अथवा पद एव काव्य हो उन्हे वारवार मनन करने योग्य और स्मृतिमे रखने योग्य समझे । ___ अभी यदि जैनसूत्रोके पढनेको इच्छा हो तो उसे निवृत्त करना योग्य है, क्योकि उन्हे (जनसूत्रोको) पढने, समझनेमे अधिक योग्यता होनी चाहिये, उसके बिना यथार्थ फलको प्राप्ति नही होती । तथापि यदि दूसरी पुस्तकें न हो, तो 'उत्तराध्ययन' अथवा 'सूयगडाग' का दूसरा अध्ययन पढ़ें, विचार । २५३ बम्बई, आषाढ सुदी १, सोम, १९४७ जव तक गुरुगमसे भक्तिका परम स्वरूप समझमे नही आया, और उसकी प्राप्ति नही हुई, तब तक भक्तिमे प्रवृत्ति करनेसे अकाल ओर अशुचि दोष होता है। अकाल और अशुचिका विस्तार बडा है, तो भी सक्षेपमे लिखा है। ( एकात ) प्रभात, प्रथम प्रहर, यह सेव्य भक्तिके लिये योग्य काल है। स्वरूपचिंतनभक्ति सर्व कालमे सेव्य है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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