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________________ २४ वा वर्ष २३९ "आप्युं सौने ते अक्षरधाम रे !' २८५ बबई, चैत्र वदी ७, गुरु, १९४७ कल एक कृपापत्र मिला था । यहाँ परमानन्द है । यद्यपि उपाधिसयुक्त बहुतसा काल जाता है, किन्तु ईश्वरेच्छाके अनुसार प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर है और योग्य है, इसलिये जैसे चल रहा है वैसे चाहे उपाधि हो तो ठीक, न हो तो भी ठीक, जो हो वह समान ही है । ज्ञानवार्ता सम्बन्धी अनेक मंत्र आपको बतानेकी इच्छा होती है, तथापि विरहकाल प्रत्यक्ष है, इसलिये निरुपायता है । मत्र अर्थात् गुप्तभेद । ऐसा तो समझमे आता है कि भेदका भेद दूर होनेपर वास्तविक तत्त्व समझमे आता है । परम अभेद ऐसा 'सत्' सर्वत्र है । वि० रायचद २४० बबई, चैत्र वदी ९, रवि, १९४७ कल पत्र और प० पूज्य श्री सोभागभाईका पत्र साथमे मिला । आप उन्हे विनयपूर्ण पत्र सहर्ष लिखिये । साथ ही विलब होनेका कारण बताइये । साथ ही लिखिये कि रायचदने इस विषय मे बहुत प्रसन्नता प्रदर्शित की है । अभी मुझे मुमुक्षुओका प्रतिबन्ध भी नही चाहिये था, क्योकि अभी आपको पोषण देनेकी मेरी अशक्यता रहती है। उदयकाल ऐसा ही है । इसलिये सोभागभाई जैसे सत्पुरुषके साथका पत्रव्यवहार आपको पोषणरूप होगा । यह मुझे बड़े सतोषका मार्ग मिला है । उन्हे पत्र लिखें । ज्ञानकथा लिखे, तो मै विशेष प्रसन्न हूँ | २४१ बबई, चैत्र वदी १४, गुरु, १९४७ जिसे लगी है, उसीको लगी है और उसीने जानी है, वही " पी पी" पुकारता है । यह ब्राह्मी वेदना कैसे कही जाय ? कि जहाँ वाणीका प्रवेश नही है । अधिक क्या कहना ? जिसे लगी है उसीको लगी है | उसीके चरणसगसे लगती है, और जब लगती है तभी छुटकारा होता है । इसके बिना दूसरा सुगम मोक्षमार्ग है ही नही । तथापि कोई प्रयत्न नही करता । मोह बलवान है । २४२ ॐ आपके पत्र प्राप्त हुए है । इस पत्रके आनेके विषय मे सर्वथा गभीरता रखिये । आप सब धीरज रखिये और निर्भय रहिये । बबई, चेत्र, १९४७ सुदृढ स्वभावसे आत्मार्थंका प्रयत्न करना । आत्मकल्याण प्राप्त होनेमे प्राय वारवार प्रबल परिषहोका आना स्वाभाविक है । परन्तु यदि उन परिपहोका वेदन गात चित्तसे करनेमे आता है, तो दीर्घ कालमे हो सकने योग्य आत्मकल्याण बहुत अल्प कालमे सिद्ध हो जाता है । आप सब ऐसे शुद्ध आचरणसे रहिये कि विपम दृष्टिसे देखनेवाले मनुष्योमेसे बहुतोको, समय बोतनेपर अपनी उस दृष्टिके लिये पश्चात्ताप करनेका वक्त आये । निराश न होना । उपाश्रयमे जानेसे शाति होती हो तो वैसा करें। साणन्द जानेसे अगानि कम होती हो तो वेसा करे । वदन, नमस्कार करनेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है । उपाश्रयमे जानेकी वृत्ति हो तो मनुष्योको भीडके समय १. दिया सबको वह अक्षरधाम रे ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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