SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३२ ] ३११ HAN ३२० निवासी मुमुक्षुओकी दशा और प्रथा, अखड | ३१४ जिनेश्वरकी आराधमासे जिनेश्वर, आत्मसत्सगकी ही इच्छा ३१० | स्वरूपका ध्यानी ममत्व-जालमें नही फंसता ३१७ २९२ निकटभवी, स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति ३१० ३१७ ३१५ स्वरूप सहज और ज्ञानीकी चरणसेवा २९३ श्री हरिकी अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र ३१६ 'एक परिनामके न करता दरव दोई', ३१७ ३१७ 'एक परिनामके न करता दरव दोई', २९४ धर्मध्यानमे वृत्ति लगना श्रेयस्कर, स्वच्छद इत्यादिका विवेचन, आत्मा तो मुक्तस्वरूप बहुत वडा दोष ३११ लगता है, वीतरागता विशेष है ३१८ २९५ मन जीतनेकी सच्ची कसोटी ३१८ अन्यत्वभावना अभ्यास, प्रमाद २९६ उदयको कैसे भोगना ? अछेद्य अभेद्य वस्तु ३११ और मुमुक्षुता , ३१९ २९७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्ति ३१९ स्वरूपविस्मरण एव अन्य भाव दूर करनेका मार्ग, केवलदर्शन सम्बन्धी आशका उपाय, पूर्ण स्वरूपस्मृति सभव ३१९ २५ वा वर्ष ३२० जीव पोद्गलिक पदार्थ नहीं है २९८ कही भी चैन नही, यह बडी विडबना ३१२ ३२१ माया दुस्तर एव दुरत, अवधपरिणामी २९९ जगतकी विस्मृति करना और सत्के चरणमें प्रवृत्ति, जनककी विदेहीरूपसे प्रवृत्ति, रहना, एक लक्ष्य-सिद्धिके लिये सभी साधन, महात्माके आलम्वनकी प्रवलता ३२० केवल उपर्युक्त समझनेके लिये सभी शास्त्र ३१२ ३२२ तो अलौकिक दृष्टिसे कौन प्रवृत्ति करेगा? ३०० प्रसिद्धि अभी प्रतिवघरूप ३१२ ज्ञानीमें अखड विश्वासका फल मुक्ति, ससार ३०१ ससारमें किस तरह रहना योग्य है ? ३१३ तथा परमार्थकी चिंताके लिये स्पष्ट सूचन, ३०२ सत्य पर धीमहि । ग्रथ पृच्छा हेतु ३१३ सिद्धियोग और विद्यायोगसम्बन्धी प्रतिज्ञा, ३०३ अभी प्रगटरूपसे समागम बद, अप्रगट सत् ३१३ हमारी निर्विकल्प समाधिका कारण, अनुभव ३०४ 'परमार्थमौन' कर्म उदयमें, सत्की अप्राप्तिके ज्ञानका फल वीतरागता, जगत-कल्याणकी तीन कारण ३१३ इच्छा, 'जीव नवि पुग्गली'का अर्थ ३२० ३०५ यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान, तेजोमयादिक दर्शन- ३२३ पूर्णज्ञानयुक्त समाधिको याद ३२२ की अपेक्षा यथार्थबोव श्रेष्ठ है ३२४ उपाधिकी ज्वालामें समाघि परम दुष्कर, ३०६ श्री सुभाग्य प्रेमसमाधिमें ३१४ सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता ३२२ ३०७ सर्व समर्पणसे देहाभिमान निवृत्ति ३१४ ३२५ अद्भुत दशा-'जवहीते चेतन विभावसो ३०८ असगवृत्ति, वस्तुको समझें ३१४ उलटि आपू' ३२२ ३०९ क्षायिक भावको प्राप्त सिद्धार्थ पुत्रकी भाव ३२६ 'शुद्धता विचारे ध्यावे' ३२२ ३१५ ३२७ अनुभवके सामर्थ्यसे काव्यादिका परिणमन ३२२ ३१० आत्मज्ञानी दर्शन या मतमें अनाग्रही, ओघ- ३२८ 'लेवेको न रही ठोर' का अर्थ, स्वरूपदृष्टि, योगदृष्टि, योगके बीज ३१५ __ भानसे पूर्णकामता ३२३ ३११ मोक्ष-सिद्धिका उपाय, वीर परमात्माका ३२९ पूर्वकर्मका निवधन, ज्ञानीको उपाधि भी ध्यान, अनुभवके विना ध्यानसुख अगम्य ३१६ अवाघ-समाधि है, एक बडा आश्चर्य, ३१२ क्षायिक चारित्रको याद करते हैं ३१६ । ज्ञानीकी अवस्थामें प्रवेश करनेका द्वार ३२३ ३१३ ज्ञानीके आत्माको देखते हैं, यो सहन करना | ३३० वोघवीजकी प्राप्ति, बोधवीज निश्चय योग्य, ज्ञानी अन्यथा नही करते, अपूर्व सम्यक्त्व, दर्शन और अज्ञान परिषह विचावीतरागता, पूर्ण वीतराग जैसे वोधकी सहज रणीय, छ पद विचारणीय ३२४ याद ३१६ | ३३१ ससारगत प्रीतिको अससारगत प्रीति करना ३२५ ३१४
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy