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________________ २४ वाँ वर्ष २६० जो साधु आपका अनुसरण करते हैं, उन्हे समय समयपर बताते रहना : “धर्म उसीको कहा ज सकता है कि जो धर्म होकर परिणमे, ज्ञान उसोको कहा जा सकता है कि जो ज्ञान होकर परिणमे । हर ये सब क्रियाएँ, वाचन इत्यादि करते है, वे मिथ्या है ऐसा कहनेका मेरा हेतु आप न समझे तो मै आपक कुछ कहना चाहता हूँ," इस प्रकार कहकर उन्हे बताना कि यह जो कुछ हम करते है, उसमे कोई ऐसी बात रह जाती है कि जिससे 'धर्म और ज्ञान' हममे अपने रूपसे परिणमित नहीं होते, और कपाय एक मिथ्यात्व (सदेह) का मदत्व नहीं होता, इसलिये हमे जीवके कल्याणका पुन पुनः विचार करना योग्य और उसका विचार करनेपर हम कुछ न कुछ फल पाये बिना नही रहेगे। हम सब कुछ जाननेका प्रयत्न करते है, परन्तु अपना 'सन्देह' कैसे दूर हो, यह जाननेका प्रयल नहीं करते। यह जब तक नही करें तब तक 'सदेह' केसे दूर होगा ? और जब तक सन्देह होगा तब तक ज्ञान भी नही होगा, इसलिये सदेहक दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये । वह सन्देह यह है कि यह जीव भव्य है या अभव्य ? मिथ्यादृष्टि है य सम्यग्दृष्टि ? सुलभवोधो है या दुर्लभबोधी? अल्पससारी है या अधिक ससारी ? यह सब हमे ज्ञात ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकारकी ज्ञानकथाका उनसे प्रसग रखना योग्य है। परमार्थपर प्रीति होनेमे सत्सग सर्वोत्कृष्ट और अनुपम साधन है, परन्तु इस कालमे वैसा यो होना बहुत विकट है, इसलिये जीवको इस विकटतामे रहकर सफलतापूर्वक पूरा करनेके लिये विक पुरुषार्थ करना योग्य हे, और वह यह कि "अनादि कालसे जितना जाना है उतना सभी अज्ञान ही है उसका विस्मरण करना।" 'सत्' सत् ही है, सरल है, सुगम है, सर्वत्र उसकी प्राप्ति होती है, परन्तु 'सत्' को बतानेवाल 'सत्' चाहिये। नय अनंत हैं, प्रत्येक पदार्थमे अनत गुणधर्म हैं, उनमे अनत नय परिणमित होते हैं, तो फिर एक या दो चार नयपूर्वक बोला जा सके ऐसा कहाँ है ? इसलिये नयादिकमे समतावान रहना । ज्ञानियो वाणी 'नय'मे उदासीन रहती है, उस वाणीको नमस्कार हो । विशेष किसी प्रसगसे। २०८ बबई, माघ वदी ३०, १९४ अनत नय है, एक एक पदार्थ अनत गुणसे और अनत धर्मसे युक्त है, एक एक गुण और एक एक धर्ममे अनत नय परिणमित होते हैं, इसलिये इस रास्तेसे पदार्थका निर्णय करना चाहे तो नही हो सकता इसका रास्ता कोई दूसरा होना चाहिये । प्राय. इस वातको ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं, और वे उस नया दिक मार्गके प्रति उदासीन रहते हैं, जिससे किसी नयका एकात खडन नहीं होता, अथवा किसी नयन एकात मडन नहीं होता । जितनी जिसकी योग्यता है, उतनी उस नयको सत्ता ज्ञानी पुरुपोको मान्य होत है। जिन्हे मार्ग नही प्राप्त हुआ ऐसे मनुष्य 'नय' का आग्रह करते है, और उससे विषम फलकी प्रापि होती है । कोई नय जहाँ बाधित नही है ऐसे ज्ञानीके वचनोको हम नमस्कार करते है। जिसने ज्ञानी मार्गकी इच्छा की हो ऐसा प्राणी नयादिमे उदासीन रहनेका अभ्यास करे, किसी नयमे आग्रह न करे औ किसी प्राणीको इस राहसे दुखी न करे, और यह आग्रह जिसका मिट गया है, वह किसी राहसे में प्राणीको दुखी करनेको इच्छा नही करता। २०९ महात्माओने चाहे जिस नामसे और चाहे जिस आकारसे एक 'सत्' को ही प्रकाशित किया है उसीका ज्ञान करना योग्य है। वही प्रतीत करने योग्य है, वही अनुभवरूप है और वही परम प्रेमर भजने योग्य है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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