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________________ २४ वॉ वर्ष २६३ *सूयगडांगसूत्रमे ऋषभदेवजी भगवानने जहां अट्ठानवें पुत्रोकी उपदेश दिया है, मोक्षमार्गपर चढाया है वहाँ यही उपदेश किया है "हे आयुष्मानो । इस जीवने सब कुछ किया है एक इसके बिना, वह क्या ? तो कि निश्चयपूर्वक । कहते हैं कि सत्पुरुपका कहा हुआ वचन, उसका उपदेश सुना नही है, अथवा सम्यक्प्रकारसे उसका पालन नही किया है । और इसे ही हमने मुनियोको सामायिक ( आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ) कहा है । " *सुधर्मास्वामी स्वामीको उपदेश देते हैं कि सारे जगतका जिन्होने दर्शन किया है, ऐसे महावीर भगवानने हमे इस प्रकार कहा है- "गुरुके अधीन होकर आचरण करनेवाले अनन्त पुरुषोने मार्ग पाकर । मोक्ष प्राप्त किया है ।" एक इस स्थल नही, परन्तु सर्वं स्थलो और सर्वं शास्त्रोमे यही बात कहनेका लक्ष्य है । आणा धम्मो आणाए तवो । आज्ञाका आराधन ही धर्म और आज्ञाका आराधन ही तप है । ( आचाराग सूत्र ) सब जगह यही महापुरुषोके कहनेका लक्ष्य है । यह लक्ष्य जीवको समझमे नही आया। इसके कारणोमे सबसे प्रधान कारण स्वच्छद है और जिसने स्वच्छदको मद किया हैं, ऐसे पुरुषके लिये प्रतिवद्धता (लोकसम्बन्धी बधन, स्वजनकुटुम्ब बंधन, देहाभिमानरूप बंधन, सकल्प - विकल्परूप बन्धन) इत्यादि बन्धनको दूर करनेका सर्वोत्तम उपाय जो कोई हो उसका इसपरसे आप विचार कीजिये, और इसे विचारते हुए जो कुछ योग्य लगे वह हमे पूछिये, और इस मार्ग यदि कुछ योग्यता प्राप्त करेंगे तो चाहे जहाँसे भी उपशम मिल जायेगा । उपशम मिले और जिसकी आज्ञाका आराधन करें ऐसे पुरुषकी खोजमे रहिये । बाकी दूसरे सभी साधन बाद मे करने योग्य है । इसके सिवाय दूसरा कोई मोक्षमार्ग विचारने पर प्रतीत नही होगा । (विकल्पसे) प्रतीत हो तो बताइयेगा ताकि जो कुछ योग्य हो वह बताया जा सकें । बंबई, पोष १९४७ १९५ सत्स्वरूपको अभेदरूपसे अनन्य भक्तिसे नमस्कार जिसे मार्ग की इच्छा उत्पन्न हुई है, उसे सब विकल्पोको छोडकर इस एक विकल्पको वारवार स्मरण करना आवश्यक है ""अनन्तकालसे जीवका परिभ्रमण हो रहा है, फिर भी उसको निवृत्ति क्यो नही होती ? और वह क्या करनेसे हो ?" इस वाक्यमे अनत अर्थ समाया हुआ है, और इस वाक्यमे कहो हुई चितना किये बिना, उसके लिये दृढ होकर तरसे बिना मार्गकी दिशाका भी अल्प भान नही होता, पूर्व मे हुआ नही, और भविष्यकाल में भी नही होगा । हमने तो ऐसा जाना है । इसलिये आप सबको यही खोजना है। उसके वाद दूसरा क्या जानना ? वह मालूम होता है । १९६ * प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय अध्ययन गाथा ३१-३२ २ मुनि - मुनिश्री लल्लुजी वई, माघ सुदी ७, रवि १९४७ मु-नसे रहना पड़ता है ऐसे जिज्ञासु, जीवके लिये दो बडे बधन हैं, एक स्वच्छद और दूसरा प्रतिवध जिसकी इच्छा स्वच्छद दूर करनेकी है, उसे ज्ञानी की आज्ञाका आराधन करना चाहिये, और जिसकी इच्छा प्रतिबंध दूर करनेकी है, उसे १ देखें आक ८६
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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