SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ २७७ २८५ २८५ [३०] २१८ सत् सर्वत्र, कालावाधित और सवका अधि- २३४ 'अपना-पराया' रहित दशा, निर्विकल्प हुए प्ठान, सत्की प्राप्ति, लोकस्वरूपकी रूपा विना छुटकारा नही, परम प्रेम परतु २८२ न्तरता, जैनकी वाह्य और अतर शैली, निरुपायता तीर्थकरदेव और अधिष्ठानरहित जगत २८३ २३५ राग-द्वेषकी निवृत्ति निरूपण, जनक विदेहीकी दशा, श्रीकृष्ण २३६ परमार्थ-चर्चाकी प्रेरणा, परमार्थमे विशेष और भागवत, स्वर्ग, नरक आदिकी उपयोगी बातें, अवघ वधनयुक्त २८३ प्रतीतिका उपाय, मोक्षकी शब्द व्याख्या, २३७ "परेच्छानुचारीको शब्दभेद नही," अर्थ जीव एक और अनेक २७५ समागममें २८४ २१९ “एक देखिये, जानिये," प्रेमभक्ति, पर- २३८ परम कारुण्यमूर्तिका उपदेश मार्थ उदासीनता २७७ २३९ 'दिया सवको वह अक्षरधाम रे' । मत्रका २२० 'अधिष्ठान' का अर्थ अर्थ, परम अभेद मत् सर्वत्र २२१ श्रीमद् भागवत परम भक्तिरूप ही, ज्योति- | २४० मुमुक्षु-प्रतिबंध भी अनिष्ट, आपको पोषण पादि कल्पित पर ध्यान नही है २७७ | देनेकी मेरी अशक्यता २२२ ज्योतिष कल्पित, कालको कलिकालका २८५ २४१ ब्राह्मीवेदना, सुगम मोक्षमार्ग उपनाम, कलियुगकी कृपा २७८ | २४२ सुदृढ स्वभावसे आत्मार्थका प्रयत्न, आत्म२२३ देहाभिमाने गलिते । किसे सर्वत्र समाधि ? कल्याण और प्रबल परिषह, उपाश्रयमें शाति एव विवेकसे बरताव करें। २८५ निःस्पृह दशा, पराभक्तिकी आखिरी हद, | २४३ समागम एकात अज्ञात स्थानमें, सच्चे ज्ञानी तो परमात्मा ही है, परमात्म-भक्ति पुरुषको कैसे पहचानें ? २८६ और कठिनाई २७८ २४४ परब्रह्मविचार, अथाह वेदना, साता पूछने२२४ योगवासिष्ठ आदि वैराग्य-उपशमके शास्त्र २८० वाला नही २२५ परमार्थके लिये स्पष्ट कह सकने जैसी दशा २४५ उपाधि-योगसे उपेक्षा नही है। २८० २४६ अतिशय विरहाग्निसे साक्षात् हरिप्राप्ति, २२६ वासनाके उपशमका सर्वोत्तम उपाय, प्रति पूर्णकाम हरिके लयवाले पुरुषोंसे भारत वद्धतामें भी आत्मा अप्रमत्त चाहिये २८० शून्यवत् २८७ २२७ प्रारब्धका समाधान होनेके लिये २८० २४७ हरिका स्वरूप मिलनेपर समझायेंगे, चित्त२२८ सदुपदेशात्मक वचन लिखनेमें वृत्तिमन्दता, की दशा चैतन्यमय, पूर्णकामता, जगउसका कारण जीवनरसका अनुभव होनेपर हरिमे लय, २२९ सत्मस्कारोको दृढता होनेके लिये लोक पराभक्ति एव तीन मुमुक्षुताका अभाव, लज्जाकी उपेक्षा अनत गुणगभीर ज्ञानावतारका लक्ष्य, सर्व२३० तिनकेके दो टुकडे करनेकी सत्ता भी हम सत्ता हरिको अर्पण, सर्व कृति, वृत्ति और नही रखते लिखनेका हेतु २८७ २३१ कबीरजी और नरसिंहको भक्ति , २४८ 'प्रबोधशतक' चित्तस्थिरतार्थ २८८ नि स्पृहताके विना विडवना । २८१ २४९ कराल काल होनेसे समाधिकी अप्राप्ति, २३२ कार्यका जाल, मायाका स्वम्प और प्रपच, सत्मग मोक्षका परम साधन, सत्सग और कल्पद्रुमछाया प्रशस्त, योग्य व्यवहार २८१ परम सत्सगका अर्थ, प्रत्यक्ष योगमे विना २३३ जवूस्वामीके त्यागका आगय, ईश्वर ममझाये भी स्वरूपस्थिति, सत्पुरुष ही प्रसन्नताका मार्ग, ज्योतिषसवधी मूर्तिमान मोक्ष ૨૮૨ नाही
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy