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________________ २४ वॉ वर्ष २५३ हुई बात है। किसी शास्त्रमेसे मिल जायेगी, न मिले तो कोई बाध नही है। तीर्थंकरके हृदयमे यह बात थी, ऐसा हमने जाना है। दशपूर्वधारी इत्यादिकी आज्ञाका आराधन करनेकी महावीरदेवकी शिक्षाके विषयमे आपने जो बताया है वह ठोक है। इसने तो बहुत कुछ कहा था, परन्तु रहा है थोड़ा और प्रकाशक पुरुष गृहस्थावस्थामे हैं । बाकीके गुफामे हैं। कोई कोई जानता है परन्तु उतना योगबल नही है। तथाकथित आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ श्रवणके योग्य भी नही है। सूत्र लेकर उपदेश करनेकी आगे जरूरत नही पड़ेगी। सूत्र और उसके पहलू सब कुछ ज्ञात हो गये हैं। यही विनती। वि० आ० रायचद। ..१७१ बबई, कार्तिक सुदी १४, बुध, १९४७ सुज्ञ भाईश्री अबालाल इत्यादि, खंभात। श्री मुनिका पत्र' इसके साथ सलग्न है मो उन्हे पहुँचाइयेगा। निरन्तर एक ही श्रेणी रहती है । हरिकृपा पूर्ण है। त्रिभोवन द्वारा वर्णित एक पत्रकी दशा स्मरणमे है। वारवार इसका उत्तर मुनिके पत्रमे बताया है वही आता है। पत्र लिखनेका उद्देश मेरे प्रति भाव करानेके लिये है, ऐसा जिस दिन मालूम हो उस दिनसे मार्गका क्रम भूल गये ऐसा समझ लीजिये । यह एक भविष्य कालमे स्मरण करने योग्य कथन है। ___ सत् श्रद्धा पाकर जो कोई आपको धर्म-निमित्तसे चाहे ' उसका संग रखें। _ वि० रायचन्दके यथायोग्य। १७२ मोहमयी, कार्तिक सुदी १४, बुध, १९४७ सजिज्ञासु-मार्गानुसारी मति, खभात । कल आपका परम भक्तिसूचक पत्र मिला । विशेष आह्लाद हुआ। • अनतकालसे स्वयंको स्वविषयक ही भ्राति रह गयी है, यह एक अवाच्य और अद्धत विचारका विषय है । जहाँ मतिको गति नही, वहां वचनकी गति कहाँसे हो? 'निरतर उदासीनताके क्रमका सेवन करना, सत्पुरुषकी भक्तिमे लीन होना; सत्पुरुषोके चरियोका स्मरण करना, सत्पुरुषोके लक्षणका चिंतन करना, सत्पुरुषाकी मुखाकृतिका हृदयसे अवलोकन करना, उनके मन, वचन और कायाकी प्रत्येक चेष्टाके अद्भुत रहस्योका वारवार निदिध्यासन करना, और उनका मान्य किया हुआ सभी मान्य करना। यह जानियो द्वारा हृदयमें स्थापित, निर्वाणके लिये मान्य रखने योग्य, श्रद्धा करने योग्य, वारंवार चिंतन करने योग्य प्रति क्षण और प्रति समय उसमे लीन होने योग्य परम रहस्य है। और यही सर्व शास्त्रोका. सर्व सतोके हृदयका और ईश्वरके घरका मर्म पानेका महामार्ग है। और इन सबका कारण किसी विद्यमान सत्पुरुषकी प्राप्ति और उसके प्रति अविचल श्रद्धा है। १. सापका पत्र न० १७२ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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