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________________ २४ वॉ वर्ष २४ २. किसी भी प्रकारसे सद्गुरुकी शोध करे, शोध करके उसके प्रति तन, मन, वचन और आत्मा अर्पणबुद्धि करे; उसीकी आज्ञाका सर्वथा नि.शकतासे आराधन करे, और तभी सर्व मायिक वासनाव अभाव होगा, ऐसा समझें । ३. अनादि कालके परिभ्रमणमे अनतवार शास्त्रश्रवण, अनतवार विद्याभ्यास, अनंतवार जिनदी ६ और अनंतवार आचार्यत्व प्राप्त हुआ है । मात्र 'सत्' मिला नही, 'सत्' सुना नही, और 'सत्' की श्रद्धा व नही, और इसके मिलने, सुनने और श्रद्धा करनेपर ही छुटकारेकी गूँज आत्मामे उठेगी। ४. मोक्षका मार्ग बाहर नही, परन्तु आत्मामे है | मार्गको प्राप्त पुरुष मार्गको प्राप्त करायेगा । ५ मार्ग दो अक्षरोमे निहित है और अनादि कालसे इतना सब करनेपर भी क्यो प्राप्त नही हुआ इसका विचार करें। बबई, कार्तिक सुदी १२, रवि, १९४ १६७ ॐ सत् हरीच्छा सुखदायक ही है । निर्विकल्प ज्ञान होनेके बाद जिस परमतत्त्वका दर्शन होता है, उस परम तत्त्वरूप सत्यका ध्यान करता हूँ । त्रिभोवनका पत्र और अंबालालका पत्र प्राप्त हुआ है । धर्मज जाकर सत्समागम करनेकी अनुमति है, परन्तु आप तीनके सिवाय और कोई न जाने ऐसा यदि हो सकता हो तो उस समागमके लिये प्रवृत्ति करें, नही तो नही । इस समागमको यदि प्रगटतामे आने देंगे तो हमारी इच्छानुसार नही हुआ, ऐसा समझें । धर्मज जानेका प्रसग लेकर यदि खम्भात से निकलेंगे तो सम्भव है कि यह बात प्रगट हो जायेगी और आप कबीर आदि सप्रदायमे मानते हैं, ऐसी लोकचर्चा होगी अर्थात् आप उस कबीर सप्रदायके न होनेपर भी वैसे माने जायेंगे । इसलिये कोई दूसरा प्रसंग लेकर निकलना और बीचमे धर्मजमे मिलाप करते आना । वहाँ भी अपने धर्मं, कुल इत्यादि सबधी अधिक परिचय नही देना । तथा उनसे पूर्ण प्रेमसे समागम करना, भेदभावसे नही, मायाभावसे नही, परन्तु सत्स्नेहभावसे करना । मलातज सम्बन्धी अभी समागम करनेका प्रयोजन नही है। खम्भातसे धर्मज की ओर जानेसे पहले धर्मंज एक पत्र लिखना, जिसमे विनयसहित जताना कि किसी ज्ञानावतार पुरुषकी अनुमति आपका सत्सग करनेके लिये हमे मिली है जिससे आपके दर्शन के लिये 'तिथिको आयेंगे । हम आपका समागम करते है यह बात अभी किसी भी तरहसे अप्रगट रखना ऐसी उस ज्ञानावतार पुरुषने आपको और हमे सूचना दी है। इसलिये आप इसका पालन कृपया अवश्य करेंगे ही। उनका समागम होनेपर एक बार नमस्कार करके विनयसे बैठना । थोड़ा समय वीतनेके बाद उनकी प्रवृत्ति - प्रेमभावका अनुसरण करके वातचीत करना । ( एक साथ तीन व्यक्ति अथवा एकसे अधिक व्यक्ति न बोलें ।) पहले यो कहे कि आप हमारे सम्वन्धमे नि सन्देह दृष्टि रखें। आपके दर्शनार्थ हम आये है । सो किमी भी तरहके दूसरे कारणसे नही, परन्तु मात्र सत्सगकी इच्छासे । इतना कहने बाद उन्हें बोलने देना। उसके थोडे समय बाद आप बोलना । हमे किसी ज्ञानावतार पुरुपका समागम हुआ था । उनकी दशा अलौक्कि देखकर हमे आश्चर्य हुआ था । हमारे जैन होनेपर भी उन्होने निविसवादरूपसे प्रवृत्ति करनेका उपदेश दिया था । "सत्य एक है, दो प्रकारका नही है । और वह ज्ञानी के अनुग्रहके बिना प्राप्त नही होता । इसलिये मत मतातरका त्याग करके ज्ञानीकी आज्ञामे अथवा सत्सगमे ३
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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