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________________ २३ वा वर्ष २४५ १६१ हे सहजात्मस्वरूपी | आप कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह दुविधामे पडे है ? यह कहें। ऐसी विभ्रात और दिग्मूढ दशा क्यो ? ___ मै क्या कहूँ ? आपको क्या उत्तर दूँ ? मति दुविधामे पड गयी है, गति नही चलती । आत्मामे । 'खेद ही खेद और कष्ट ही कष्ट हो रहा है। कही भी दृष्टि नही ठहरती और हम निराधार, निराश्रय हो गये है। ऊँचे-नीचे परिणाम प्रवाहित होते रहते है। अथवा लोकादिके स्वरूपके विषयमे उलटे विचार आया करते हैं, किंवा भ्राति और मूढता रहा करती है। कही दृष्टि नही पहुँचती। भ्राति हो गयी है कि अब मुझमे कोई विशेष गुण दिखायी नही देता। मै अब दूसरे मुमुक्षुओको भी सच्चे स्नेहसे प्रिय नही हूँ। वे सच्चे भावसे मुझे नहीं चाहते । अथवा कुछ अनिच्छासे और मध्यम स्नेहसे प्रिय समझते है । अधिक 'परिचय नही करना चाहिये, वह मैंने किया, उसका भी खेद होता है। सभी दर्शनोमे शका होती है । आस्था नही आती। यदि ऐसा है तो भी चिन्ता नही । आत्माकी आस्था है अथवा वह भी नही है ? उसकी आस्था है। उसका अस्तित्व है, नित्यत्व है, और वह चैतन्यवान है। अज्ञानसे कर्ताभोक्तापन है । ज्ञानसे परयोगका कर्ताभोक्तापन नही है। ज्ञानादि उसका उपाय है। इतनी आस्था है। परन्तु उस आस्थाके प्रति अभी आत्मवृत्ति विचारशून्यतावत् रहती है। इसका बडा खेद है। यह जो आपको आस्था है यही सम्यग्दर्शन है । किसलिये दुविधामे पड़ते है ? विकल्पमे पड़ते हैं ? इस आत्माकी व्यापकताके लिये, मुक्तिस्थानके लिये, जिनकथित केवलज्ञान और वेदान्तकथित केवलज्ञानके लिये तथा शुभाशुभ गति भोगनेके लोकके स्थान, तथा वैसे स्थानोके स्वभावतः शाश्वत अस्तित्वके लिये, तथा इसके मापके लिये वारवार शंका और शका ही हुआ करती है, और इससे आत्मा स्थिर नही हो पाता। जो जिनेन्द्रने कहा है उसे माने न । जगह-जगह शका होती है। तीन कोसके आदमो-चक्रवर्ती आदिके स्वरूप इत्यादि मिथ्या लगते ... हैं । पृथिवी आदिके स्वरूप असभव लगते हैं। उसका विचार छोड दे। छोडे छूटता नही है। किसलिये ? यदि उसका स्वरूप उनके कहे अनुसार न हो तो उन्हें जैसा केवलज्ञान कहा है वैसा नही था, ऐसा सिद्ध होता है। तो क्या वैसा मानना? तो फिर लोकका स्वरूप कौन यथार्थ जानता है ऐसा मानना? कोई नही जानता ऐसा मानना ? और ऐसा जाने तो सबने अनुमान करके ही कहा है, ऐसा मानना पड़ता है। तो फिर बध मोक्ष आदि भावोकी प्रतीति क्या ? योगसे वैसा दर्शन होता हो, तो किसलिये अन्तर पड़ेगा? 'समाधिमे छोटी वस्तु बड़ी दिखायी देती है और इससे मापमे विरोध आता है। समाधिमे चाहे जैसा दिखायी देता हो परन्तु मूलरूप इतना है और समाधिमे इस प्रकार दिखायी देता है, ऐसा कहनेमे क्या हानि थी?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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