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________________ २३ वो वर्ष २३९ विपरीताचरण हो गया तो उसके लिये पश्चात्ताप करूँगा। ऐसा नही करनेके लिये आगेसे बहुत सावधानी रलूँगा। आपका सौंपा हुआ काम करते हुए मै निरभिमानी रहूँगा। मेरी भूलके लिये मुझे उपालम्भ देगे उसे सहन करूंगा। मेरा बस चलेगा वहाँ तक स्वप्नमे भी आपका द्वेष या आपके सम्बन्धमे किसी भी प्रकारको अन्यथा कल्पना नही करूँगा। आपको किसी प्रकारकी शका हो तो मुझे बताइयेगा, तो आपका उपकार मानूंगा, और उसका सच्चा स्पष्टीकरण करूँगा । स्पष्टीकरण न हुआ तो मौन रहूँगा, परन्तु असत्य नही बोलूँगा। आपसे मात्र इतना ही चाहता हूँ कि किसी भी प्रकारसे आप मेरे निमित्तसे अशुभ योगमे प्रवृत्ति न करें। आप अपनी इच्छानुसार वर्तन करें, इसमे मुझे कुछ भी अधिक कहनेकी जरूरत नही है। मात्र मुझे मेरी निवृत्तिश्रेणिमे प्रवृत्ति करने देते हुए किसी तरह अपना अन्त करण छोदा न करें, और यदि छोटा करनेकी आपको इच्छा हो तो अवश्य मुझे पहलेसे कह दें। उस श्रेणिको निभानेकी मेरी इच्छा हैं और उसके लिये मैं योग्य कर लूंगा। मेरा बस चलेगा तब तक मैं आपको दुखी नहीं करूँगा और आखिर यही निवृत्तिश्रेणि आपको अप्रिय होगी तो भी मै यथाशक्ति सावधानीसे, आपके समीपसे, आपको किसी भी प्रकारकी हानि पहुँचाये बिना शक्य लाभ पहुंचाकर, भविष्यके चाहे जिस कालके लिये भी वैसी इच्छा रखकर खिसक जाऊँगा। (१४) बम्बई, आषाढ वदी ४, रवि, १९४६ विश्वाससे व्यवहार करके अन्यथा व्यवहार करनेवाले आज पछतावा करते हैं।' बम्बई, आषाढ वदी ११, शनि, १९४६ (१५) . .. तुच्छ और वाचाहीन यह जगत तो देखें। .... . . (१६) । बम्बई, आषाढ वदी १२, रवि, १९४६ ___दृष्टि ऐसी स्वच्छ करे कि जिसमे सूक्ष्मसे सूक्ष्म दोष भी दिखायी दे सके, और दिखायी देनेसे उनका क्षय हो सके। (१७) वाणिया, आसोज सुदी १०, गुरु, १९४६ बीजज्ञान। ... । । । भगवान महावीरदेव, । शोधे तो केवलज्ञान कुछ कहा जा सके ऐसा यह स्वरूप नही है। ज्ञानी रत्नाकर ये सब नियतियाँ किसने कही ? हमने ज्ञानसे देखकर फिर जैसी योग्य प्रतीत हुई वैसी व्याख्या की। . . भगवान महावीरदेव । - १०, ९, ८, ७, ६, ४, ३, २, १ पाठान्तर-१ कराते हैं। २ अविद्यमान । ३. अयाचित । माम
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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