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________________ २३ वाँ वर्ष २२७ १३२ ववाणिया, प्रथम भादो वदी १३, शुक्र, १९४६ "क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका" सत्पुरुषका क्षणभरका भी समागम ससाररूपी समुद्र तरनेके लिये नौकारूप होता है। यह वाक्य महात्मा शकराचार्यजीका है, और यह यथार्थ ही लगता है। आपने मेरे समागमसे हुआ आनद और वियोगसे हुआ अनानद प्रदर्शित किया है, वैसा ही आपके समागमके लिये मुझे भी हुआ है। अत करणमे निरतर ऐसा ही आया करता है कि परमार्थरूप होना, और अनेकको परमार्थ सिद्ध करनेमे सहायक होना यही कर्तव्य है, तथापि कुछ वैसा योग अभी वियोगमे है। भविष्यज्ञानको जिसमे आवश्यकता है, उस बातपर अभी ध्यान नहीं रहा । १३३ ववाणिया, द्वितीय भादो सुदी २, मगल, १९४६ आत्मविवेकसपन्न भाई श्री सोभागभाई, मोरबी। __ आज आपका एक पत्र मिला । पढकर परम सतोप हुआ । निरतर ऐसा ही सतोष देते रहनेके लिये विज्ञप्ति है। यहाँ जो उपाधि है, वह एक अमुक कामसे उत्पन्न हुई है, और उस उपाधिके लिये क्या होगा, ऐसी कुछ कल्पना भी नही होती, अर्थात् उस उपाधिसम्बन्धी कोई चिंता करनेकी वृत्ति नहीं रहती। यह उपाधि कलिकालके प्रसगसे एक पहलेकी सगतिसे उत्पन्न हुई है । और उसके लिये जैसा होना होगा वैसा थोडे समयमे हो रहेगा । इस स सारमे ऐसी उपाधियाँ आना यह कोई आश्चर्यकी बात नही है। ईश्वरपर विश्वास रखना यह एक सुखदायक मार्ग है। जिसका दृढ विश्वास होता हे वह दुःखी नही होता, अथवा दुखी होता है तो दुखका वेदन नहीं करता। दुख उलटा सुखरूप हो जाता है। आत्मेच्छा ऐसी ही रहती है कि ससारमे प्रारब्धानुसार चाहे जैसे शुभाशुभ उदयमे आयें, परन्तु उनमे प्रीति-अप्रीति करनेका हम सकल्प भी न करें। रात-दिन एक परमार्थ विषयका ही मनन रहता है । आहार भी यही है, निद्रा भी यही है, शयन भी यही है, स्वप्न भी यही है, भय भी यही है, भोग भी यही है, परिग्रह भी यही है, चलना भी यही है, आसन भी यही है। अधिक क्या कहना ? हाड़, मास और उसकी मज्जा सभी इसी एक ही रगमे रगे हुए हैं। एक रोम भी मानो इसोका ही विचार करता है, और उसके कारण न कुछ देखना भाता है, न कुछ सूचना भाता है, न कुछ सुनना भाता है, न कुछ चखना भाता है कि न कुछ छूना भाता है, न बोलना भाता हे कि न मौन रहना भाता है, न बैठना भाता है कि न उठना भाता है, न सोना भाता है कि न जागना भाता है, न खाना भाता है कि न भूखे रहना भाता है, न असग भाता है कि न सग भाता है, न लक्ष्मी भाती है कि न अलक्ष्मी भाती है ऐसा है, तथापि उसके प्रति आशा निराशा कुछ भी उदित होती मालूम नही होती। वह हो तो भी ठोक और न हो तो भी ठोक, यह कुछ दुखका कारण नही है । दुखका कारण मात्र विषमात्मा है, और वह यदि सम हे तो सब सुख ही है। इस वृत्तिके कारण समाधि रहती है । तथापि वाहरसे गृहस्थोकी प्रवृत्ति नही हो सकती, देहभाव दिखाना नही पुसाता, आत्मभावसे प्रवृत्ति वाहरसे करनेमे कितना हो अतराय हे । तो अब क्या करना ? किस पर्वतकी गुफामे जाना और ओझल हो जाना, यहो रटन रहा करती है । तथापि बाहरसे अमुक सासारिक प्रवृत्ति करनी पड़ती है। उसके लिये शोक तो नही हे तथापि जीव सहन करना नही चाहता | परमानदको छोडकर इसे चाहे भी क्यो? और इसी कारणसे ज्योतिष आदिकी ओर अभी चित्त नहीं है। चाहे जैसे भविष्यज्ञान अथवा सिद्धियोकी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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