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________________ २३ वो वर्ष २२३ १२५ ववाणिया, श्रावण वदी १३, बुध, १९४६ धर्मेच्छुक भाईश्री, आज मतातरसे उत्पन्न हुआ पहला पर्युषण आरम्भ हुआ। अगले मासमे दूसरा पर्यंपण आरभ होगा । सम्यकदृष्टिसे मतातर दूर करके देखनेसे यही मतातर दुगुने लाभका कारण है, क्योकि दुगुना धर्म सम्पादन किया जा सकेगा। चित्त गुफाके योग्य हो गया है । कर्मरचना विचित्र है। वि० रायचंदके यथायोग्य। १२६ ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ३, सोम, १९४६ आपके दर्शनका लाभ लिये लगभग एक माससे कुछ अधिक समय हुआ। बबई छोड़े एक पक्ष हुआ। बबईका एक वर्षका निवास उपाधिग्रस्त रहा । समाधिरूप तो एक आपका समागम था, उसका यथेष्ट लाभ प्राप्त न हुआ। ज्ञानियो द्वारा कल्पित सचमुच यह कलिकाल ही है। जनसमुदायकी वृत्तियाँ विषय-कषाय आदिसे विषमताको प्राप्त हुई हैं। इसकी बलवत्तरता प्रत्यक्ष है। राजसी वृत्तिका अनुकरण उसे प्रिय हुआ है। तात्पर्य यह कि विवेकियोकी और यथायोग्य उपशमपात्रोकी छाया भी नहीं मिलती। ऐसे विषमकालमे जन्मा हुआ यह देहधारी आत्मा अनादिकालके परिभ्रमणकी थकानसे विश्राति लेनेके लिये आया, प्रत्युत अविश्राति पाकर फंस गया है । मानसिक चिता कही भी कही नही जा सकती। कहने योग्य पात्रोकी भी कमी है। ऐसी स्थितिमे अब क्या करना ? यद्यपि यथायोग्य उपशमभावको प्राप्त आत्मा ससार और मोक्षमे समवृत्तिवाला होता है । इसलिये अप्रतिबद्धतासे विचर सकता है। परन्तु इस आत्माको तो अभी वह दशा प्राप्त नही हुई है । उसका अभ्यास है । तो फिर उसके पास यह प्रवृत्ति किसलिये खड़ी होगी? जिसमे निरुपायता है उसमे सहनशीलता सुखदायक है और ऐसा ही प्रवर्तन है, परन्तु जीवन पूर्ण ___ होनेसे पहले यथायोग्यरूपसे नोचेकी दशा आनी चाहिये १ मन, वचन और कायासे आत्माका मुक्तभाव । २ मनका उदासीनतासे प्रवर्तन । ३ वचनकी स्याद्वादता (निराग्रहता )। ४ कायाकी वृक्षदशा ( आहार-विहारकी नियमितता )। अथवा सर्व सदेहोकी निवृत्ति, सर्व भयमुक्ति और सर्व अज्ञानका नाश । सतोने शास्त्रो द्वारा अनेक प्रकारसे उसका मार्ग बताया है, साधन बताये है, योगादिकसे उत्पन्न हुआ अपना अनुभव कहा है, तथापि उसमे यथायोग्य उपशमभाव आना दुष्कर है । वह मार्ग है, परन्तु उपादानकी बलवान स्थिति चाहिये। उपादानकी बलवान स्थिति होनेके लिये निरन्तर सत्सग चाहिये, वह नही है। शिशुवयसे ही इस वृत्तिका उदय होनेसे किसी प्रकारका परभाषाभ्यास न हो सका । अमुक सप्रदायसे शास्त्राभ्यास न हो सका। संसारके बधनसे ऊहापोहाभ्यास भी न हो सका, और वह न हो सका इसके लिये कोई दूसरा विचार नही है। उससे आत्मा अधिक विकल्पी होता (सबके लिये विकल्पिता नही, परन्तु मै केवल अपनी अपेक्षासे कहता हैं।) और विकल्पादिक क्लेशका तो नाश ही करना चाहा था. इस. लिये जो हुआ वह कल्याणकारक ही है। परन्तु अब जैसे महानुभाव वसिष्ठ भगवानने श्रीरामको इसी दोषका विस्मरण कराया था वैसे कौन कराये ? अर्थात् भाषाभ्यासके विना भी शास्त्रका वहत परिचय
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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