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________________ २३ वॉ वर्ष २२१ ___ धर्ममे प्रसक्त रहे यही वारवार अनुरोध है । सत्यपरायणके मार्गका सेवन करेंगे तो जरूर सुखी होगे : पार पायेंगे, ऐसा मै मानता हूँ। ___ इस भवकी और परभवकी निरुपाधिता जिस रास्तेसे की जा सके उस रास्तेसे कोजियेगा, ऐसी ती है। उपाधिग्रस्त रायचदके यथायोग्य ११९ बंबई, आषाढ वदी ७, मंगल, १९४६ निरतर निर्भयतासे रहित इस भ्रातिरूप ससारमे वीतरागत्व ही अभ्यास करने योग्य है; निरंतर यतासे विचरना ही श्रेयस्कर है, तथापि कालकी और कर्मकी विचित्रतासे पराधीनतासे यह दोनो पत्र मिले । सतोष हुआ । आचाराग सूत्रका पाठ देखा । यथाशक्ति विचारकर अन्य प्रसगपर लिखूगा। धर्मेच्छुक विभोवनदासके प्रश्नका उत्तर भी प्रसगपर दे सकंगा। जिसका अपार माहात्म्य है, ऐसी तीर्थंकरदेवकी वाणीकी भक्ति करें। वि० रायचद १२० बबई, आषाढ वदी ३०, १९४६ ___आपकी 'योगवासिष्ठ' पुस्तक इसके साथ भेजता हूँ। उपाधिका ताप शमन करनेके लिये यह |ल चदन है, इसके पढ़नेमे आधि-व्याधिका आगमन सम्भव नही है। इसके लिये आपका उपकार ता हूँ। ___आपके पास कभी कभी आनेमे भी एक मात्र इसी विषयकी अभिलाषा है। बहुत वर्षोसे आपके 1.करणमे रही हुई ब्रह्मविद्याका आपके ही मुखसे श्रवण हो तो एक प्रकारकी शाति मिले । किसी भी तेसे कल्पित वासनाओका नाश होकर यथायोग्य स्थितिकी प्राप्तिके सिवाय अन्य इच्छा नही है. तु व्यवहारके सम्बन्धमे कितनी ही उपाधियाँ रहती है, इसलिये सत्समागमका यथेष्ट अवकाश नही ता, तथा आपको भी कुछ कारणोसे उतना समय देना अशक्य समझता हूँ, और इसी कारणसे अन्त:णकी अन्तिम वृत्ति पुन पुनः आपको बता नही सकता, तथा तत्सम्बन्धी अधिक बातचीत नही हो ती। यह एक पुण्यकी न्यूनता है, अधिक क्या? ___आपके सम्बन्धसे किसी तरह व्यावहारिक लाभ लेनेकी इच्छा स्वप्नमे भी नही की है, तथा आप 'दूसरोसे भी इसकी इच्छा नही रखी है । एक जन्म और वह भी थोडे ही कालका, प्रारब्धानुसार विता I, उसमे दीनता उचित नहीं है, यह निश्चय प्रिय है। सहज भावसे व्यवहार करनेकी अभ्यासप्रणालिका । (थोड़ेसे) वर्षोंसे आरभ की है; और इससे निवृत्तिकी वृद्धि है। यह बात यहां बतानेका हेतु इतना ही के आप अशकित होगे, तथापि पूर्वापरसे भी अशकित रहनेके लिये जिस हेतुसे आपकी ओर मेरा देखना उसे बताया है, और यह अशकितता ससारसे औदासीन्य भावको प्राप्त दशाके लिये सहायक होगी, Tमाना होनेसे (बताया है)। 'योगवासिष्ठ' के सम्बन्धमे आपको कुछ बताना चाहता हूँ (प्रसग मिलनेपर)। जैनधर्मके आग्रहसे ही मोक्ष है, ऐसा मानना आत्मा बहुत समयसे भूल चुका है। मुक्तभावमे ।।) म है ऐसी धारणा है, इसलिये बातचीतके समय आप कुछ अधिक कहते हुए न रुके ऐसी विज्ञप्ति के
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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