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________________ २३ वाँ वर्ष २१६ वबई, पौष, १९४६ 'जो मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुपार्थोंकी प्राप्ति कर सकना चाहते हो, उनके विचारमे सहायक होना' इस वाक्यमे इस पत्रको जन्म देनेका सब प्रकारका प्रयोजन बता दिया है। उसे कुछ प्रेरणा देना योग्य है। इस जगतमे विचित्र प्रकारके देहधारी हैं, और प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाणसे यो सिद्ध हो सका है, कि उनमे मनुष्यरूपमे प्रवर्तमान देहधारी आत्मा इन चारो वर्गोको सिद्ध कर सकनेके लिये विशेष योग्य है। मनुष्यजातिमे जितने आत्मा है उतने सब कही एकसी वृत्तिके, एकसे विचारके या समान जिज्ञासा और इच्छावाले नही हैं, ऐसा हम प्रत्यक्ष देख सकते है। प्रत्येकको सूक्ष्मदृष्टिसे देखते हुए वृत्ति, विचार और इच्छाकी इतनी अधिक विचित्रता लगती है कि आश्चर्य होता है । इस आश्चर्यका बहुत प्रकारसे अवलोकन करनेसे यह फलित होता है कि सर्व प्राणियोकी अपवादके विना सुख प्राप्त करनेकी जो इच्छा है वह अधिकाश मनुष्यदेहमे सिद्ध हो सकती है, ऐसा होनेपर भी वे सुखके बदले दुःख ले लेते हैं, यह मात्र मोहदृष्टिसे हुआ है। १०२ ॐ ध्यान दुरंत तथा सारवर्जित इस अनादि ससारमे गुणसहित मनुष्यजन्म जीवको दुष्प्राप्य अर्थात् दुर्लभ है। हे आत्मन् । तूने यदि यह मनुष्यजन्म काकतालीय न्यायसे प्राप्त किया है, तो तुझे अपनेमे अपना निश्चय करके अपना कर्तव्य सफल करना चाहिये । इस मनुष्य जन्मके सिवाय अन्य किसी भी जन्ममे अपने स्वरूपका निश्चय नहीं होता । इसीलिये यह उपदेश है । अनेक विद्वानोने पुरुषार्थ करनेको इस मनुष्यजन्मका फल कहा है। यह पुरुषार्थ धर्म आदि के भेदसे चार प्रकारका है । प्राचीन महर्षियोने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यो चार प्रकारका पुरुषार्थ कहा है। इन पुरुषार्थोमे पहले तीन पुरुषार्थ नाशसहित और ससाररोगसे दूषित हैं ऐसा जानकर तत्त्वज्ञ ज्ञानीपुरुष अतके परमपुरुषार्थ अर्थात् मोक्षका साधन करनेमे ही यत्न करते है । कारण कि मोक्ष नाशरहित अविनाशी है। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप समस्त कर्मोके सम्बन्धके सर्वथा नाशरूप लक्षणवाला तथा जो ससारका प्रतिपक्षी है वह मोक्ष है। यह व्यतिरेक प्रधानतासे मोक्षका स्वरूप है। दर्शन और वीर्यादि गुणसहित तथा ससारके क्लेशोसे रहित चिदानदमयी आत्यतिक अवस्थाको साक्षात् मोक्ष कहा है। यह अन्वय प्रधानतासे मोक्षका स्वरूप कहा है। जिसमे अर्त द्रिय, इद्रियोसे अतिकात, विषयोसे अतीत. उपमारहित और स्वाभाविक विच्छेद रहित पारमार्थिक सुख हो उसे मोक्ष कहा जाता है। जिसमे यह आत्मा निर्मल, शरीररहित, क्षोभरहित, शातस्वरूप, निष्पन्न ( सिद्धरूप ), अत्यत अविनाशी सुखरूप, कृतकृत्य तथा समीचीन सम्यग्ज्ञान स्वरूप हो जाता है उस पदको मोक्ष कहते हैं। धीर वीर पुरुष इस अनन्त प्रभाववाले मोक्षरूप कार्यके निमित्त समस्त प्रकारके भ्रमोको छोडकर, कर्मबंधके नाश करनेके कारणरूप तपको अगीकार करते हैं। श्री जिन सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्रको मुक्तिका कारण कहते है । अतएव जो मुक्तिको इच्छा करते है वे सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्रको ही मोक्षका साधन कहते हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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