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________________ २०६ भीमद राजचन्द्र था। वह दशा आज भी बहुत याद आती है । आजका विवेकी ज्ञान उस वयमे होता तो मुझे मोक्षके लिये विशेष अभिलाषा न रहती । ऐसी निरपराध दशा होनेसे पुन पुन वह याद आती है। सात वर्पसे ग्यारह वर्ष तकका समय शिक्षा लेनेमे बीता। आज मेरी स्मृतिको जितनी ख्याति प्राप्त है, उतनी ख्याति प्राप्त होनेसे वह किंचित् अपराधी हुई है, परन्तु उस समय निरपराध स्मृति होनेसे एक ही वार पाठका अवलोकन करना पड़ता था, फिर भी ख्यातिका हेतु न था, अत उपाधि बहुत कम थी। स्मृति ऐसी बलवत्तर थी कि वैसी स्मृति बहुत ही थोडे मनुष्योमे इस कालमे, इस क्षेत्रमे होगी। पढनेमे प्रमादी बहुत था। बातोमे कुशल, खेलकूदमे रुचिवान और आनदी था। जिस समय शिक्षक पाठ पढाता, मात्र उसी समय पढकर उसका भावार्थ कह देता | इस ओरकी निश्चितता थी। उस समय मुझमे प्रीतिसरल वात्सल्यता-बहुत थी, सबसे ऐक्य चाहता, सबमे भ्रातृभाव हो तभी सुख, इसका मुझे स्वाभाविक ज्ञान था । लोगोमे किसी भी प्रकारसे जुदाईके अकुर देखता कि मेरा अत.करण रो पडता। उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत आदत थी। आठवें वर्षमे मैंने कविता की थी, जो बादमे जाँचनेपर समाप थी। अभ्यास इतनी त्वरासे कर सका था कि जिस व्यक्तिने मुझे प्रथम पुस्तकका बोध देना आरम्भ किया था उसीको गुजराती शिक्षण भली भाँति प्राप्त कर उसी पुस्तकका पुन. मैंने बोध किया था । तब कितने ही काव्यग्रन्थ मैंने पढे थे। तथा अनेक प्रकारके इधर-उधरके छोटे-मोटे बोधग्रन्थ मैने देखे थे, जो प्राय अभी तक स्मृतिमे विद्यमान है। तव तक मुझसे स्वाभाविकरूपसे भद्रिकताका ही सेवन हुआ था। मै मनुष्यजातिका बहुत विश्वासी था । स्वाभाविक सृष्टिरचनापर मुझे बहुत प्रीति थी। मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति करते थे। उनसे उस वयमे कृष्णकीर्तनके पद मैंने सुने थे, तथा भिन्नभिन्न अवतारोके सम्बन्धमे चमत्कार सुने थे, जिससे मुझे भक्तिके साथ-साथ उन अवतारोमे प्रीति हो गयी थी, और रामदासजी नामके साधुके पास मैने बाललीलामे कठी बंधवाई थी। नित्य कृष्णके दर्शन करने जाता, समय समयपर कथाएं सुनता, बार बार अवतारो सम्वन्धी चमत्कारोमे मै मुग्ध होता और उन्हे परमात्मा मानता, जिससे उनके रहनेका स्थान देखनेकी परम अभिलाषा थी। उनके सम्प्रदायके महंत होवें, जगह-जगहपर चमत्कारसे हरिकथा करते होवे और त्यागी होवे तो कितना आनन्द आये? यही कल्पना हुआ करती, तथा कोई वैभवी भूमिका देखता कि समर्थ वैभवशाली होनेकी इच्छा होती । 'प्रवीणसागर' नामका ग्रन्थ उस अरसेमे मैंने पढा था, उसे अधिक समझा नही था, फिर भी स्त्रीसम्बन्धी नाना प्रकारके सुखोमे लीन होवें और निरुपाधिरूपसे कथाकथन श्रवण करते होवे तो कैसी आनददायक दशा, यह मेरी तृष्णा थी। गुजराती भापाकी वाचनमालामे जगतकर्तासम्बन्धी कितने ही स्थलोमे उपदेश किया है वह मुझे दृढ हो गया था, जिससे जैन लोगोंके प्रति मुझे बहुत जुगुप्सा आती थी, बिना बनाये कोई पदार्थ नही बन सकता, इसलिये जैन लोग मूर्ख है, उन्हे कुछ मालूम नही है। तथा उस समय प्रतिमाके अश्रद्धालु लोगोकी क्रियाएँ मेरे देखनेमे आती थी, जिससे वे क्रियाएँ मलिन लगनेसे मैं उनसे डरता था अर्थात् वे मुझे प्रिय न थी। जन्मभूमिमे जितने वणिक रहते है, उन सबकी कुलश्रद्धा भिन्न भिन्न होनेपर भी कुछ प्रतिमाके अश्रद्धालु जैसी ही थी, इससे मुझे उन लोगोका ही ससर्ग था । लोग मुझे पहलेसे ही समर्थ शक्तिशाली और गांवका नामाकित विद्यार्थी मानते थे, इसलिये मै अपनी प्रशसाके कारण जानबूझकर वैसे मडलमे बैठकर अपनी चपलशक्ति दर्शानेका प्रयत्न करता। कठीके लिये बारवार वे मेरो हास्यपूर्वक टीका करते, फिर भी मै उनसे वाद करता ओर उन्हे समझानेका प्रयत्न करता। परन्तु धीरे-धीरे मुझे उनके प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढनेके लिये मिली, उनमे बहुत विनयपूर्वक जगतके सब जीवोसे मित्रता चाही है अतः मेरी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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