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________________ १९६ श्रीमद राजचन्द्र उपचार या अनुपचारसे) से, कालसे और भाव ( उसके गुणादिक भाव) से । अब हम आत्माकी व्याख्या भी इसके बिना नही कर सकते। आप यदि इस प्रज्ञापनीयता से आत्माकी व्याख्या अवकाशानुकूल बतलायें, तो संतोषका कारण होगी । इसमेसे एक अद्भुत व्याख्या निकल सकती है, परंतु आपके विचार पहलेसे कुछ सहायक हो सकेंगे ऐसा मानकर यह प्रयाचना की है। धर्मोपजवन प्राप्त करनेमे आपकी सहायताकी प्रायः आवश्यकता पडेगी, ऐसा लगता है, परन्तु सामान्यत वृत्ति-भाव सबधी आपके विचार जान लेनेके बाद उस बातको जन्म देना, ऐसी इच्छा है । शास्त्र परोक्षमार्ग है, और प्रत्यक्षमार्ग है । इस बार इतना ही लिखकर इस पत्रको विनय भावसे पूरा करता हूँ । यह भूमिका एक श्रेष्ठ योगभूमिका है । यहाँ मुझे एक सन्मुनि इत्यादिका प्रसग रहता है । वि० आ० रायचंद रवजीभाईके प्रणाम । ७२ भरुच, श्रावण सुदी १०, १९४५ बाह्यभावसे जगतमे रहे और अतरगमे एकात शीतलीभूत - निर्लेप रहे, यही मान्यता और उपदेश है । ७३ बबई, श्रावण वदी ७, शनि, १९४५ आपके आरोग्यकी खबर अभी नही मिली है। उसे अवश्य लिखें और शरीर की स्थिति के लिये यथासंभव शोकरहित होकर प्रवृत्ति करें । ववाणिया, भादो सुदी २, १९४५ सुज्ञ चि०, सवत्सरी सबधी हुए अपने दोषों की शुद्ध बुद्धिसे क्षमा-याचना करता हूँ । आपके सारे कुटुम्ब अविनय आदिके लिये क्षमा चाहता हूँ । ७४ परतत्रता के लिये खेद है । परन्तु अभी तो निरुपायता है । पत्रका उत्तर लिखने मे सावधानी रखियेगा । महासतीजीको अभिवदन कीजियेगा । राज्य० के य० आ० ७५ बबई, भादो वदी ४, शुक्र, १९४५ मुझ पर शुद्ध राग समभावसे रखें । विशेषता न करे । धर्मध्यान और व्यवहार दोनोकी रक्षा करें । लोभी गुरु, गुरु-शिष्य दोनोके लिये अधोगतिका कारण है । मे एक ससारी हूँ । मुझे अल्प ज्ञान है । आपको शुद्ध गुरुकी जरूरत है । ७६ मोहमयी, आसोज वदी १०, शनि, १९४५ दूसरा कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमे सर्वभाव अर्पण करके प्रवृत्ति करता रह । फिर यदि मोक्ष न मिले तो मुझसे लेना । सत्पुरुष वही है कि जो रात दिन आत्माके उपयोगमे है, जिसका कथन शास्त्रमे नही मिलता, सुननेमे नही आता, फिर भी अनुभवमे आ सकता है, अतरग स्पृहारहित जिसका गुप्त आचरण है, बाकी तो कुछ कहा नही जा सकता और ऐसा किये विना तेरा कभी छुटकारा होनेवाला नही है, इस अनुभव - प्रवचनको प्रामाणिक मान ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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