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________________ १८२ श्रीमद राजचन्द्र ४९ ववाणिया, माघ वदी ७, शुक्र, १९४५ सत्पुरुषोको नमस्कार कल सबेरे आपका पत्र मिला । किसी भी प्रकारसे खेद न कीजियेगा । ऐसा होनहार था सो ऐसा हुआ, यह कोई विशेष बात न थी । आत्माकी इस दशाको यथासंभव रोककर योग्यता के अधीन होकर, उन सबके मनका समाधान करके इस सगतको चाहे और यह सगत या यह पुरुष उस परमात्मतत्त्वमे लीन रहे, यह आशीर्वाद देते ही रहे । तन, मन, वचन और आत्मस्थितिको संभालें । धर्मध्यान करनेके लिये अनुरोध है । यह पत्र जूठाभाईको तुरत दें । वि० रायचदके प्रणाम विदित हो । ववाणिया, माघ वदी ७, शुक्र, १९४५ ५० सत्पुरुषोको नमस्कार सुज्ञ, आप मेरे वैराग्यसबधी आत्मवर्तनके बारेमे पूछते हैं, इस प्रश्नका उत्तर किन शब्दोमे लिखूँ ? और उसके लिये आपको क्या प्रमाण दे सकूँगा ? तो भी संक्षेपमे यह कि ज्ञानीके माने हुए (तत्त्व ?) को मान्य करें कि उदयमे आये हुए प्राचीन कर्मोको भोग लेना और नूतन कर्म न बँधने पायें इसीमे अपना आत्महित है । इस श्रेणिमे वर्तन करनेकी मेरी प्रपूर्ण आकाक्षा है, परन्तु वह ज्ञानीगम्य है, इसलिये अभी उसका एक अंश भी बाह्य प्रवृत्ति नही हो सकती । आर-प्रवृत्ति चाहे जितनी नीरागश्रेणिकी ओर जाती हो परन्तु बाह्यके अधीन अभी बहुत बरतना पडे यह स्पष्ट है । —बोलते, चलते, बैठते, उठते और कुछ भी काम करते हुए लौकिक श्रेणिका अनुसरण करके चलना पड़े । यदि ऐसा न हो सके तो लोग कुतर्कमे ही लग जायें, ऐसा मुझे सभव लगता है तो भी कुछ प्रवृत्ति रखी है। आप सबकी दृष्टिमे मेरी (वेराग्यमयी ) चर्या कुछ आपत्तिपूर्ण है, तथा, किसीकी दृष्टिमे मेरी वह श्रेणि शंकापूर्ण भी हो सकती है, इसलिये आप इत्यादि वैराग्यमे जाते हुए मुझे रोकनेका प्रयत्न करें और शंकावाले उस वैराग्यसे उपेक्षित होकर माने नही, इससे खिन्न होकर ससारकी वृद्धि करनी पड़े, इसलिये मेरी मान्यता यही है कि प्राय भूमितलपर सत्य अंत. करणको प्रदर्शित करनेके स्थान बहुत ही कम भवित है; जैसे हो वैसे आत्माको आत्मामे समाकर जीवनपर्यन्त समाधिभाव सयुक्त रहा जाये तो फिर संसारके उस खेदमे पड़ना ही न हो। अभी तो आप जैसा देखते हैं वैसा हूँ । जो संसारी प्रवर्तन होता है वह करता हूँ | धर्म सम्बन्धी मेरी चर्या उस सर्वज्ञ परमात्मा के ज्ञानमे दीखती हो वह ठीक, उसके बारेमे 'पूछना नही चाहिये था । पूछनेसे वह कही भी नही जा सकती । सहज उत्तर देना योग्य था, सो दिया है। क्य पात्रता कहाँ है, यह देखता हूँ । उदयमे आये हुए कर्म भोगता हूँ । 'यथार्थ स्थितिमे अभी एकाध अश भी आया होऊँ यो कहनेमे तो 'आत्मप्रशंसा की ही सभावना है । 1 यथाशक्ति प्रभुभक्ति, सत्सग, सत्य व्यवहारके साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ प्राप्त करते रहे । प्रयत्नसे जैसे आत्मा ऊर्ध्वगतिका परिणामी हो वैसे करें । प्रति समय क्षणिक जीवन व्यतीत होता जाता है, इसमें हम प्रमाद करते हैं यही महामोहनीयका वि० रायचदके 'सत्पुरुषोको नमस्कारसहित प्रणाम । वल है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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