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________________ १८० श्रीमद राजचन्द्र जिसका यह ग्रन्थिछेदन हो गया उसे आत्मप्राप्ति होना सुलभ है। तत्त्वज्ञानियोने इसी ग्रन्थिभेदनका पुन पुनः उपदेश किया है । जो आत्मा अप्रमत्ततासे उस ग्रन्थिभेदनकी ओर दृष्टि रखेगा वह आत्मा आत्मत्वको प्राप्त होगा यह नि सदेह है। इस 'वस्तुसे आत्मा अनत कालसे सर्वथा बद्ध रहा है। इसपर दृष्टि होनेसे निजगृहपर उसकी यथार्थ दृष्टि नहीं हुई है। सच्ची तो पात्रता है, परन्तु मैं इस कषायादिके उपगमनमे आपके लिये निमित्तभूत हुआ ऐसा आप मानते है, इसलिये मुझे आनन्द माननेका यही कारण है कि निग्रंथ शासनकी कृपा प्रसादीका लाभ लेनेका सुन्दर समय मुझे मिलेगा ऐसा सभव है । ज्ञानीदृष्ट सो सच्चा । जगतमे मत्परमात्माकी भक्ति, सद्गुरु, सत्सग, सत्शास्त्राध्ययन, सम्यग्दृष्टित्व और सत्योग, ये कभी प्राप्त नहीं हुए। हुए होते तो ऐसी दशा नहीं होती। परन्तु 'जव जागे तभी सवेरा' यो सत्पुरुपोका वोध विनयपूर्वक ध्यानमे लेकर उस वस्तुके लिये प्रयत्न करना, यही अनत भवकी निष्फलताका एक भवमे दूर होना मेरी समझमे आता है।' सद्गुरुके उपदेशके बिना और जीवकी सत्पात्रताके बिना ऐसा होना रुका हुआ है। उसकी प्राप्ति करके ससारतापसे अत्यन्त सतप्त आत्माको शीतल करना, यही कृतकृत्यता है । ___ इस प्रयोजनमे आपका चित्त आकर्षित हुआ, यह भाग्यका सर्वोत्तम अश हे। आशीर्वचन है कि इसमे आप फलीभूत होवें। ___भिक्षासबधी प्रयत्न अभी स्थगित करें। जब तक ससारको जैसे भोगनेका निमित्त होगा वैसे भोगना पडेगा-। इसके बिना छुटकारा भी नही है । अनायास योग्य स्थान मिल जाये तो ठीक, नही तो प्रयत्न करें। और भिक्षाटनके सम्बन्धमे योग्य समय पर पुन. पूछे । विद्यमानता होगी तो उत्तर दूंगा। "धर्म" यह वस्तु बहुत गुप्त रही है । यह वाह्य शोधनसे मिलनेवाली नही है । अपूर्व अन्त शोधनसे यह प्राप्त होती है । यह अन्त शोधन कोई एक महाभाग्य सद्गुरुके अनुग्रहसे पाता है। आपके विचारोको सुन्दर श्रेणिमे आये हुए देखकर मेरे अन्तःकरणने जो भाव उत्पन्न किया है उसे यहाँ बतानेसे सकारण रुक जाता हूँ। चि० दयालभाईके पास जायें। वे कुछ कहे तो मुझे बतायें। लिखनेके सम्बन्धमे अभी मुझे कुछ कटाला रहता है। इसलिये जितना सोचा था उसके आठवें भागका भी उत्तर नही लिख सकता। यह मेरी विनयपूर्वक अन्तिम शिक्षा ध्यानमे रखियेगा :। एक भवके थोडे सुखके लिये अनत भवके अनत दुखको नही बढानेका प्रयत्न सत्पुरुप करते हैं। स्याद्वाद शैलोसे यह बात भी मान्य है कि जो होनेवाला है वह बदलनेवाला नही है और जो बदलनेवाला है वह होनेवाला नही है। तो फिर धर्मप्रयत्नमे, आत्महितमे अन्य उपाधिके अधीन होकर प्रमाद क्यो करना ? ऐसा है फिर भी देश, काल, पात्र और भाव देखने चाहिये। सत्पुरुपोका योगवल जगतका कल्याण करे । ऐसी इच्छा करके वापसी डाकसे पत्र लिखनेकी विनती करके पत्रिका पूर्ण करता हूँ। " मात्र रवजी आत्मज रायचंदके प्रणाम-नीराग श्रेणी समुच्चयसे । १ ग्रन्धिसे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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