SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - २२ वाँ वर्ष .. ४१ भरुच, मार्गशीर्ष सुदी ३, गुरु, १९४५ पत्रसे समाचार मालूम हुए । अपराध नही, परंतु परतत्रता है । निरंतर सत्पुरुषकी कृपादृष्टि चाहे और शोकरहित रहे, यह मेरा परम अनुरोध है। उसे स्वीकार कीजियेगा। विशेष न लिखे तो भी इस आत्माको उसका ध्यान है । बडोको प्रसन्न रखें । सच्चा धैर्य रखें। पूर्ण खुशीमे हूँ। भरुच, मार्गशीर्ष सुदी १२, १९४५ चिं० जूठाभाई, जहाँ पत्र देने जाते है, वहाँ निरन्तर कुशलता पूछते रहियेगा । प्रभुभक्तिमे तत्पर रहियेगा । नियमका पालन कीजियेगा, और सब बडोकी आज्ञाके अनुकूल रहियेगा, यह मेरा अनुरोध है । जगतमे नीरागत्व, विनय और सत्पुरुषकी आज्ञा न मिलनेसे यह आत्मा अनादिकालसे भटकता रहा, परन्तु निरुपायता हुई सो हुई। अब हमे पुरुषार्थ करना उचित है । जय हो । यहाँ चारेक दिन ठहरना होगा। वि. रायचन्द बंबई, मार्गशीर्ष वदी ७, मंगल, १९४५ जिनाय नमः सुज्ञ, आपका सूरतसे लिखा हुआ पत्र मुझे आज सवेरे ११ बजे मिला । उसका ब्योरा पढकर एक प्रकारसे शोच हुआ, क्योकि आपको निष्फल चक्कर काटना पड़ा। यद्यपि मैने यह बतलानेके लिये पहलेसे एक पत्र लिखा था कि मैं सूरतमे कम ठहरनेवाला हूँ, मैं मानता हूँ कि वह पत्र आपको समय पर नही मिला होगा । अस्तु । अब हम थोडे समयमे वतनमे मिल सकेंगे। यहाँ मैं कुछ बहुत समय रुकनेवाला नहीं हूँ। आप धैर्य रखें, और शोचका त्याग करें, ऐसी विनती है । मिलनेके बाद मै यह चाहता हूँ कि आपको प्राप्त हुआ नाना प्रकारका खेद दूर हो । और ऐसा होगा । आप उदास न हो। साथका चि० का विनतीपत्र मैने पढा था। उन्हे भी धीरज दे। दोनो भाई धर्ममे प्रवृत्ति करे।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy