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________________ १७६ श्रीमद् राजचन्द्र ४ अभी मात्र इतनी प्रस्तावना करके प्रतिमासंबधी अनेक प्रकारसे जो सिद्धि मुझे प्रतीत हुई उसे अब कहता हूँ । उस सिद्धिका मनन करनेसे पहले वाचक निम्न विचारोको कृपया ध्यानमे रखें- । , (अ) आप भी तरनेके इच्छुक हैं, और मैं भी हूँ, दोनो महावीरके बोध, आत्महितैषी बोधको चाहते है और वह न्याययुक्त है । इसलिये जहाँ सत्यता हो वहाँ दोनो अपक्षपातसे सत्यता कहे। ' (आ) कोई भी बात जब तक योग्य रीतिसे समझमे न आये तब तक उसे समझे, तत्संबधी कुछ कहते हुए मौन रखें। , (इ) अमुक बात सिद्ध हो तभी ठीक है. ऐसा न चाहे, परतु सत्य, सत्य सिद्ध हो ऐसा चाहे। प्रतिमाको पूजनेसे ही मोक्ष है किंवा उसे न माननेसे मोक्ष है, इन दोनो विचारोके बारेमे, इस पुस्तकका योग्य प्रकारसे मनन करने तक मौन रहे। (ई) शास्त्रकी शैलीसे विरुद्ध अथवा अपने मानकी रक्षाके लिये कदाग्रही होकर कोई भी बात न कहे। (उ) एक बातको असत्य और दूसरोको सत्य माननेमे जब तक अटूट कारण न दिया जा सके, तब तक अपनी बातको मध्यस्थवृत्तिमे रोक रखें। (ऊ) किसी धर्मको माननेवाला सारा समुदाय कही मोक्षमे चला जायेगा ऐसा शास्त्रकारका कहना नही है, परन्तु जिसका आत्मा धर्मत्वको धारण करेगा वह सिद्धिसप्राप्त होगा, ऐसा कहना है। इसलिये स्वात्माको धर्मबोधकी पहले प्राप्ति करानी चाहिये। उसका एक साधन यह भी है, उसका परोक्ष या प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना खंडन कर डालना योग्य नही है। (ए) यदि आप प्रतिमाको माननेवाले है तो उससे जिस हेतुको सिद्ध करनेकी परमात्माकी आज्ञा है उसे सिद्ध कर ले, और यदि आप प्रतिमाके उत्थापक है तो इन प्रमाणोको योग्य रीतिसे विचारकर देख लें। दोनो मुझे शत्रु या मित्र कुछ भी न मानें। चाहे जो कहनेवाला है, ऐसा समझकर ग्रन्थको पढ जायें। (ऐ) इतना ही सच्चा है अथवा इतनेमेसे ही प्रतिमाकी सिद्धि हो तो हम मानें ऐसा आग्रह न रखियेगा । परन्तु वीरके उपदिष्ट शास्त्रोसे सिद्धि हो ऐसी इच्छा कीजियेगा। (ओ) इसीलिये पहले इस बातको ध्यानमे लेना पडेगा कि वीरके उपदिष्ट शास्त्र कौनसे कहे जा सकते है, अथवा माने जा सकते है, इसलिये मै पहले इस सबधमे कहूँगा। (औ) मुझे सस्कृत, मागधी या किसी भाषाका अपनी योग्यताके अनुसार परिचय नही है, ऐसा मानकर मुझे अप्रामाणिक ठहरायेगे तो न्यायके प्रतिकूल जाना पडेगा । इसलिये मेरे कथनकी शास्त्र और आत्ममध्यस्थतासे जॉच कीजियेगा। . (अ) यदि मेरे कोई विचार योग्य न लगे-तो सहर्ष पूछियेगा, परतु उससे पहले उस विषयमे अपनी समझसे शकायुक्त निर्णय न कर वैठियेगा। (अ) सक्षेपमे कहना यह है कि जैसे कल्याण हो वैसे प्रवर्तन करनेके सवधमे मेरा कहना अयोग्य लगता हो, तो उसके लिये यथार्थ विचार करके फिर जैसा हो वैसा मान्य करे । शास्त्र-सूत्र कितने ? १ एक पक्ष यो कहता है कि आजकल पैतालीस या उससे अधिक सूत्र है। और उनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टोका इन सबको मानना चाहिये। दूसरा पक्ष कहता है कि बत्तीस ही सूत्र है, और वे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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