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________________ ७२ बाह्यभावसे जगतमें रहें और अतरगमें निर्लेप रहें ७३ शोकरहित प्रवृत्ति करें ७४ क्षमा-याचना, परतत्रताके लिये खेद ७५ मुझ पर शुद्ध राग रखें, लोभी गुरु दोनोके लिये अधोगतिका कारण ७६ सत्पुरुषको ही खोज, सत्पुरुषके लक्षण, उसकी सेवासे पद्रह भवमें मोक्ष [ २५ ] १९६ १९६ १९६ १९६ १९६ ७७ सुखकी सहेली, अध्यात्मकी जननी उदासीनता, लघुवयथी अद्भुत थयो .. ( काव्य ) १९७ ७८ स्त्रीके संबध में मेरे विचार, निरावाघ सुख व परम समाधिका आश्रय शुद्ध ज्ञान, स्त्रीमें दोष नही परतु आत्मामे, शुद्ध उपयोगसे मोहनीय भस्मीभूत १९७ १९८ १९९ ७९ दृष्टिभेदसे भिन्न भिन्न मत ( काव्य ) ८० प्रतापी पुरुष ८१ कर्मकी विचित्र aघ- स्थिति, महान मनोजयो वर्धमान आदि ८२ दुखिया मनुष्योका सिरताज बन सकूं, अतरङ्गचर्या प्रगट करने योग्य पात्रोकी दुर्लभता ही महा दुःख है ८३ गृहाश्रमवधी विचार आपके सामने रखनेका हेतु, तत्त्वज्ञानकी गहरी गुफाका दर्शन और निवास, जगतकी विचित्रता त्रिकाल २०० २३ वाँ वर्ष १९९ १९९ ८४ भाई, इतना तो तेरे लिये अवश्य करने योग्य है २०२ ८५ समझकर अल्पभाषी होनेवालेको पश्चात्तापका अवसर कम, आत्माको पहचाननेके लिये आत्म-परिचयी एव पर वस्तुका त्यागी होना २०३ ८६ अनतकाल हुआ, जीवको निवृत्ति क्यो नही होती ? ससारमें रहना और मोक्ष होना कहना यह होना असुलभ, चार भावना ८७ परमतत्त्वको सामान्य ज्ञानमें प्रस्तुत करनेकी हरिभद्राचार्यकी स्तुत्य चमत्कृति, नास्तिकके उपनामसे जैनदर्शनका खडन यथार्थ नही, अतरङ्ग अभिलापा, तरनेका एक ही मार्ग २०३ २०३ ८८ सर्वव्यापक चेतनका चित्तसे विचार, प्रकाश स्वरूप घाम, अत करण व आत्मा ८९ समुच्चयदयचर्या ९० अद्भुत योजना -- धर्मके दो प्रकार - १. सर्वसगपरित्यागी २ देशपरित्यागी, ज्ञानका उद्धार, निग्रंथ धर्म आदिको योजना, मतमतातरादिकी विचारणा ९१ वह पवित्र दर्शन होनेके बाद वघन नही, सत्स्वरूपदर्शिताकी बलिहारी ९२ आत्मदर्शिता तव प्राप्त होगी आदि ९३ नवपदध्यानियोकी वृद्धिकी अभिलाषा ९४ बँधे हुमोंको छुडाना ९५ उपालभ, सर्वगुणाश सम्यक्त्व ९६ धर्म, अर्थ, कामकी एकत्रता ९७ चार पुरुषार्थकी समझ दो प्रकारसे ९८ समाधिभाव प्रशस्त रहता है, वीतराग देवमें वृत्तिपूर्वक प्रवृत्त रहें ९९ चार आश्रमवाला काल धन्य १०० श्री ऋषभदेव द्वारा व्यवहार धर्मोपदेश, भरत द्वारा वेद, आश्रम, वर्ण और पुरुपार्थकी योजना २०४ २०५ २०७ २०८ २०८ २०९ २०९ २०९ २०९ २०९ २१० २१० २१० १०१ मनुष्यात्मा चार वर्गकी सिद्धि के योग्य, आश्चर्यकारी विचित्रता, मोहदृष्टिसे दु ख २११ १०२ मनुष्यजन्म दुर्लभ, परम पुरुषार्थ, मोक्षका स्वरूप, ध्यानरूप जहाज उपादेय २११ १०३ कुटुम्बरूपी काजलको कोठरीमे रहने से सारवृद्धि २१२ १०४ व्यवहारक्रम तोडकर लिखनेमे अशक्त, जिनोक्त पदार्थ यथार्थ ही हैं १०५ महावीरके वोघका पात्र कौन ? १०६ रचनाकी विचित्रता सम्यग्ज्ञान- वोधक, जनसमूहको अपेक्षासे यह काल अति निकृष्ट १०७ लोक पुरुषसस्थाने कह्यो ( काव्य ) पुरुषाकार लोकका रहस्य क्या ? हम कौन ? कहाँसे ? सुखी-दुखी क्यो ? जहाँ शका वहाँ सताप, गुरु-पहचानके लिये वैराग्य आवश्यक, सव घर्मो में एक तत्त्वका गुणगान, जीवन्मुक्त दशा २१२ २१२ २१३ २१३
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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