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________________ [२३] १६५ in x - १६७ 5 w a v __- १२५ “ १२८ १२८ - - १२९ ११० ८१ पचमकाल १२० | २३ जीवतत्त्वसम्बन्धी विचार ८२ तत्त्वावबोध-भाग १ १२० २४ जीवाजीवविभक्ति १६६ " -भाग २ १२१ २५ प्रमादसे आत्मस्वरूपकी विस्मृति १६६ -भाग ३ १२२ २६ मनकी विचित्र दशा, सावधानी शूरका भूषण १६७ -भाग ४ १२२ २७ दूसरा महावीर, सर्वज्ञ जैसी स्थितिमें, सच्चे -भाग ५ १२३ धर्मके प्रवर्तनकी उत्कठा। -भाग ६ १२३ २८ धर्मप्रवर्तनमे विलब, किसीको निराश नही -भाग ७ १२४ करूंगा १६८ -भाग ८ - - १२४ २१ वो वर्ष -भाग ९ - १२५ | २९ भाइयोमे प्रीति आदिकी वृद्धि करें, समयका -भाग १० । सदुपयोग करें, निश्चित रहें। १६९ -भाग ११ - , १२६ | ३० लग्न सम्बन्धी विचार, परार्थ करते हुए -भाग १२ १२६ लक्ष्मीसे अघता आदिका सभव, विवाह -भाग १३ १२७ दिलका रिश्ता १६९ -भाग १४ ३१ दुनियामें सत्समागम ही अमूल्य लाभ १७० __ -भाग १५' ३२ एक अद्भुत बात, बायी आँखमें चमकारा १७० ३३ आर्थिक वेफिक्री न रखें, आत्मसुखके लिये , -भाग १७ १२९ व्यय-सकोच १७० ९९ समाजकी आवश्यकता ३४ चमत्कारसे आत्मशक्तिमें परिवर्तन १७० १०० मनोनिग्रहके विघ्न ३५ समय-यापन, सत्सग न मिलनेसे विवेक १०१ स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य १३१ व्याकुलता १७० १०२ विविध प्रश्न-भाग १ १३१ ३६ मतभेदसे अनतकालमें भी धर्म नही पाया १७१ १०३ , -भाग २ - ३७ जगतको अच्छा दिखानेके लिये अनतवार प्रयत्न, १०४ -भाग ३ १३२ उपयोगशुद्धि, इस कालकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग, १०५ -भाग ४ १३३ आपके 'पूज्य' की निर्विकल्प होनेकी इच्छा, १०६ -भाग ५ १३४ रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म, सर्वसम्मत १०७ जिनेश्वरकी वाणी (काव्य) १३४ धर्म, आत्मामें हूँ, देह धर्मोपयोगके लिये १७१ १०८ पूर्णमालिका मगल (काव्य) - १३५ ।। ३८ स्वभावमुक्त प्रत्यक्ष अनुभवस्वरूप आत्मा, अगम-अगोचर, सुगम-सुगोचर १७२ १९ वॉ वर्ष १८ बावन अवघान, अवधान आत्मशक्तिका कार्य, | ३९ चैतन्य सत्ता प्रत्यक्ष व सन्मुख, आत्मज्ञानसे विश्राम - १७२ न्यायशास्त्र, अभ्यासार्थ काशीयात्राविचारणीय १३६ , ४० तत्त्व पानेके लिये उत्तम पाय, सुलभ वोधित्व२०वा वर्ष की योग्यता, निम्रन्य दर्शन मानने योग्य, १९ महानीति (वचन सप्तशती) . १३८ दु पम काल, मत-प्रवर्तनमें मुख्य कारण, २० एकान्तवाद हो ज्ञानकी अपूर्णता १५६ धर्मकी दुर्लभता, सच्चे दीक्षित एव शोधक २१ वचनामृत १५६ पुरुष विरल, -मुख्य विवाद प्रतिमापूजन, २२ स्वरोदयज्ञान-प्रस्तावना और पद्यार्थ, प्रतिमासिद्धिके प्रमाण, शास्त्र-सूत्र कितने, आत्मज्ञ चिदानदजीकी मध्यम अप्रमत्तदशा १६१ मन्तिम अनुरोध १७२ १३० १३२
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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