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________________ १४४ श्रीमद् राजचन्द्र २१९. मोहदृष्टिसे वस्तुको नही देखू । २२० हृदयसे दूसरा रूप नही रखू। २२१ सेव्यकी शुद्ध भक्ति करूं । (सामान्य) २२२ नीतिसे चलूं। २२३. तेरी आज्ञाका भङ्ग नही करूँ। २२४. अविनय नही करूं। २२५ छाने बिना दूध नही पीऊँ। २२६ तेरे द्वारा निषिद्ध वस्तु उपयोगमे नही लाऊँ। २२७. पापसे जय करके आनन्द नही मानूँ । २२८ गायनमे अधिक अनुरक्त नही होऊँ । २२९. नियम तोड़नेवाली वस्तु नही खाऊँ। २३० गृहसौदर्यकी वृद्धि करूँ। २३१ अच्छे स्थानोकी इच्छा नही करूं । २३२ अशुद्ध आहार-जल नही लूं । ( मुनित्व भाव ) २३३ केशलुचन करूँ।। २३४ प्रत्येक प्रकारसे परिषह सहन करूं । २३५ तत्त्वज्ञानका अभ्यास करूँ। २३६ कदमूलका भक्षण नही करूं। २३७ किसी वस्तुको देखकर प्रसन्न न होऊँ । २३८ आजीविकाके लिये उपदेशक नही बनूँ (२) २३९, तेरे नियमको नही तोड्। २४० श्रुतज्ञानकी वृद्धि करूँ। २४१ तेरे नियमका मडन करूं। २४२ रसगारव नही होऊँ। २४३ कषाय धारण नही करूँ। २४४ बन्धन नही रखू । २४५ अब्रह्मचर्यका सेवन नही करूं । २४६ आत्मा परात्माको समान मानूं । (२) २४७ लिये हुए त्यागका त्याग नही करूँ। २४८ मृषा इत्यादि भापण नही करूं। २४९ किसी पापका सेवन नही करूं । २५० अवध पापकी क्षमापना करूँ। २५१. क्षमायाचनामे अभिमान नही रखू। (मुनि सामान्य) २५२ गुरुके उपदेशका भङ्ग नही करूँ। २५३ गुरुका अविनय नही करूं । २५४ गुरुके आसनपर नही वैलूं । २५५ उससे किसी प्रकारकी महत्ताका भोग नही करूं। २५६. उससे शुक्लहृदयसे तत्त्वज्ञानकी वृद्धि करूँ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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