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________________ १७ दो वर्ष १२२ जिस लोकिक मतसे अपनी आजीविका चल रही है, ऐसे वेदोकी महत्ता घटानेसे अपनी महता घटेगी, अपना मिथ्या स्थापित किया हुआ परमेश्वरपद नही चलेगा, इसलिये जनतत्वमे प्रवेश करनेकी रुविको मूलसे ही बद करनेके लिये लोगोको ऐसी भ्रमभस्म दी कि जैनदर्शन नास्तिक है। लोग तो बेचारे भोले भेडें हैं, इसलिये वे फिर विचार भी कहाँसे करे ? यह कहना कितना अनर्थकारक और मृषा है, इसे दे ही जानते है जिन्होने वीतरागप्रणीत सिद्धान्त विवेकसे जाने है । सभवतः मदबुद्धि मेरे कहनेको पक्षपातपूर्ण मान लें। शिक्षापाठ ९७ : तत्वावबोध-भाग १६ पवित्र जैनदर्शनको नास्तिक कहलवानेमे वे एक दलीलसे व्यर्थ ही मफल होना चाहते है कि जेनदर्शन इस जगतके कर्ता परमेश्वरको नही मानता, और जो परमेश्वरको नहीं मानता वह तो नास्तिक ही है। यह बात भद्रिक जनोको शीघ्र जम जाती है, क्योकि उनमे यथार्थ विचार करनेको प्रेरणा नहीं है। परन्त यदि इस परसे यह विचार किया जाये कि फिर जैन जगतको अनादि अनत तो कहता है तो किस न्यायसे कहता है ? जगतकर्ता नही है यो कहनेमे इसका कारण क्या है ? यो एकके वाद एक भेदरूप विचारसे वे जैनकी पवित्रताको समझ सकते हैं। जगतको रचनेकी परमेश्वरको क्या आवश्यकता थी? रचा तो सख-दख रखनेका क्या कारण था ? रचकर मौत किसलिये रखी? यह लोला किसे दिखानी थी? रचा तो किस कर्मसे रचा? उससे पहले रचनेको इच्छा क्यो नही थी? ईश्वर कान है ? जगतके पदार्थ क्या है ? और इच्छा क्या है ? रचा तो जगतमे एक ही धर्मका प्रवर्तन रखना था, यो भ्रममे डालनेकी क्या आवश्यकता थी ? कदाचित् मान लें कि यह सब उस बेचारेसे भूल हुई। खैर, क्षमा करें, परन्तु ऐसी सवाई बुद्धि कहाँसे सूझी कि उसने अपनेको ही जड-मूलसे उखाड़नेवाले महावीर जैसे पुरुषोको जन्म दिया ? इनके कहे हुए दर्शनको जगतमे क्यो विद्यमान रखा ? अपने हो हाथसे अपने ही पाँव पर कुल्हाडी मारनेकी उसे क्या आवश्यकता थी ? एक तो मानो इस प्रकारसे विचार और बाकी दूसरे प्रकारसे ये विचार कि जैनदर्शनके प्रवर्तकोको इससे कोई द्वेष था ? यह जगत्कर्ना होता तो यो कहनेसे उनके लाभको कोई हानि पहुँचती थी ? जगतकर्ता नही है, जगत अनादि अनत हे यो कहनेमे उन्हे कुछ महत्ता भिल जाती थी ? ऐसे अनेक विचार करनेसे मालूम होगा कि जैसा जगतका स्वरूप था वैसा ही उन पवित्र पुरुषोने कहा है। इससे भिन्न रूपमे कहनेका उन्हे लेशमात्र प्रयोजन नहीं था। सूक्ष्मसे सूक्ष्म जीवको रक्षाका जिन्होने विधान किया है, एक रजकणसे लेकर सारे जगतके विचार जिन्होने सर्व भेदोंसे कहे है, ऐसे पुरुषोंके पवित्र दर्शनको नास्तिक कहनेवाले किस गतिको प्राप्त होगे यह सोचते हुए दया आती है। शिक्षापाठ ९८ : तत्त्वावबोध-भाग १७ जो न्यायसे जय प्राप्त नही कर सकता वह फिर गालियाँ देने लगता है, इसी तरह जब गकराचार्य, दयानन्द संन्यासी इत्यादि पवित्र जैनदर्शनके अखण्ड तत्त्व-सिद्धान्तोका खण्डन नही कर सके तब फिर वे 'जैन नास्तिक है', 'वह चार्वाकमेसे उत्पन्न हुआ है', ऐसा कहने लगे। परन्तु यहाँ कोई प्रश्न करे कि महाराज | यह विवेचन आप बादमे करै । ऐसे शब्द कहनेमे कुछ समय, विवेक या ज्ञानकी जरूरत नही है, परन्तु इसका उत्तर दें कि जैनदर्शन वेदसे किस बातमे कम है, इसका ज्ञान, इसका बोध, इसका रहस्य और इसका सत्शील कैसा है उसे एक बार कहे | आपके वेदविचार किस विषयमे जैनदर्शनसे उत्तम हैं ? इस प्रकार जब बात मर्मस्थानपर आतो हे तव मौनके सिवाय उनके पास दूसरा कोई साधन नही रहता । जिन सत्पुरुपोके वचनामृत और योगवलसे इस सृष्टिमे सत्य, दया, तत्त्वज्ञान और महाशील
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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