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________________ १७ वां वर्ष ११९ श्रेयस्कर सुख है, और सुख निरंतर आत्माको प्रिय ही है, परतु जो स्वस्वरूपसुख है वह । देश, काल और भावकी अपेक्षासे श्रद्धा, ज्ञान इत्यादि उत्पन्न करनेकी आवश्यकता है। सम्यग्भावसहित उच्चगति, वहाँसे महाविदेहमे मानवदेहके रूपमे जन्म, वहाँ सम्यगभावकी पुन उन्नति, तत्त्वज्ञानकी विशुद्धता और वृद्धि, अन्तमे परिपूर्ण आत्मसाधन ज्ञान और उसका सत्य परिणाम सर्वथा सर्व दुखका अभाव अर्थात् अखंड, अनुपम, अनंत शाश्वत पवित्र मोक्षकी प्राप्ति, इस सबके लिये ज्ञानकी आवश्यकता है। २ ज्ञानके भेद कितने हैं तत्सबधी विचार कहता हैं । इस ज्ञानके भेद अनत है, परतु सामान्यदृष्टि समझ सके इसलिये सर्वज्ञ भगवानने मुख्य पाँच भेद कहे हैं। उन्हे मैं ज्यो का त्यो कहता हूँ। प्रथम मति, द्वितीय श्रुत, तृतीय अवधि, चतुर्थ मन पर्यय और पचम संपूर्ण स्वरूप केवल। इनके पुनः प्रतिभेद है । और फिर उनके अतीद्रिय स्वरूपसे अनत भग जाल हैं । ___३ जानने योग्य क्या है ? इसका अब विचार करे । वस्तुके स्वरूपको जाननेका नाम जब ज्ञान है, तब वस्तुएँ तो अनत हैं, उन्हे किस क्रमसे जानना ? सर्वज्ञ होनेके बाद सर्वदर्शितासे वे सत्पुरुप उन अनत वस्तुओके स्वरूपको सवं भेदोंसे जानते है और देखते है, परतु वे किन किन वस्तुओको जाननेसे इस सर्वज्ञश्रेणिको प्राप्त हुए ? जब तक अनत श्रेणियोको नही जाना तब तक किन वस्तुओको जानते-जानते उन अनत वस्तुओको अनंतरूपसे जान सकें? इस शकाका समाधान अब करें। जो अनंत वस्तुएँ मानो हे व अनत भगोकी अपेक्षासे हैं, परन्तु मुख्य वस्तुत्व-स्वरूपसे उनकी दो श्रेणियाँ है-जीव और अजीव । विशेष वस्तुत्व-स्वरूपसे नव तत्त्व किवा षड्द्रव्यको श्रेणियाँ जानने योग्य हो जाती हैं। इस क्रमसे चढतेचढते सर्व भावसे ज्ञात होकर लोकालोकस्वरूप हस्तामलकवत जाना देखा जा सकता है। इसलिये जानने योग्य पदार्थ जीव और अजीव हैं। ये जानने योग्य मुख्य दो श्रेणियाँ कही गई। शिक्षापाठ ८० : ज्ञानसंबंधी दो शब्द-भाग ४ ४ इनके उपभेदोको सक्षेपमे कहता हूँ। 'जीव' चैतन्य लक्षणसे एकरूप है, देहस्वरूपसे और द्रव्यस्वरूपसे अनतानंत है। देहस्वरूपसे उसको इन्द्रिय आदि जानने योग्य है, उसकी गति, विगति इत्यादि जानने योग्य है, उसकी ससर्गऋद्धि जानने योग्य है। इसी प्रकार 'अजीव', उसके रूपी-अरूपी पुद्गल, आकाशादिक विचित्र भाव, कालचक्र इत्यादि जानने योग्य हैं । प्रकारान्तरसे जीव-अजीवको जाननेके लिये सर्वज्ञ सर्वदर्शीने नौ श्रेणोरूप नौ तत्त्व कहे है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर; निर्जरा, बध और मोक्ष । इनमेसे कुछ ग्रहण करने योग्य, कुछ जानने योग्य और कुछ त्यागने योग्य है। ये सभी तत्त्व जानने योग्य तो हैं ही। ५ जाननेके साधन यद्यपि सामान्य विचारसे इन साधनोको जान तो लिया है, तो भी विशेषरूपसे कुछ जानें। भगवानकी आज्ञा और उसका शुद्ध स्वरूप यथातथ्य जानना चाहिये । स्वय तो कोई ही जानता है, नही तो निग्रंथ ज्ञानी गुरु बता सकते है । नीरागी ज्ञाता सर्वोत्तम हैं। इसलिये श्रद्धाके बीजका रोपण करनेवाले या उसका पोषण करनेवाले गुरु साधनरूप हैं। इस साधन आदिके लिये ससारको निवृत्ति अर्थात् शम, दम, ब्रह्मचर्य आदि अन्य साधन है। यदि इन्हे साधन प्राप्त करनेका मार्ग कहे तो भो योग्य है। ६ इस ज्ञानके उपयोग अथवा परिणामके उत्तरका आशय ऊपर आ गया है, परतु कालभेदसे कुछ कहना है, और वह इतना हो कि दिनमे दो घडीका समय भी नियमित रखकर जिनेश्वर भगवानके कहे हुए तत्त्ववोधका परिशोलन करो। वीतरागके एक सैद्धातिक शब्दसे ज्ञानावरणीयका बहुत क्षयोपशम होगा यह मैं विवेकसे कहता हूँ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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