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________________ १०७ १७वॉ वर्ष लगाता था, वह लक्ष्मी या ऐसी किसी लालच से नही, परन्तु यह मानकर कि यह ससारदुःखसे पार करनेवाला साधन है | मौतका भय क्षणभर भी दूर नही है, इसलिये यथासम्भव यह कर्तव्य कर लेना चाहिये, यह मेरी मुख्य नीति थी । दुराचारसे कोई सुख नही है, मनकी तृप्ति नही है, और आत्माकी मलिनता है । इस तत्त्वकी ओर मैंने अपना ध्यान लगाया था । शिक्षापाठ ६४ : सुखसम्बन्धी विचार -- भाग ४ यहाँ आनेके बाद मैंने अच्छे घरकी कन्या प्राप्त की । वह भी सुलक्षणी और मर्यादाशील निकली । उससे मेरे तीन पुत्र हुए। कारोबार प्रबल होनेसे और पैसा पैसेको खीचता है इस न्याय से मैं दस वर्षमे महान करोडपति हो गया । पुत्रोकी नीति, विचार और बुद्धिको उत्तम रखनेके लिये मैंने बहुत सुन्दर साधनोकी व्यवस्था की, जिससे वे इस स्थित्तिको प्राप्त हुए है । अपने कुटुम्बियोको यथायोग्य स्थानो लगाकर उनकी स्थितिको सुधारा | दुकानके मैने अमुक नियम बनाये | उत्तम मकान बनवानेका आरम्भ कर दिया । यह मात्र एक ममत्वके लिये किया । गया हुआ फिर प्राप्त किया, और कुल परपराकी प्रसिद्धिको जानेसे रोका, ऐसा कहलवानेके लिये मैने यह सब किया । इसे मैं सुख नही मानता । यद्यपि मैं दूसरोकी अपेक्षा सुखी हूँ, तो भी यह सातावेदनीय है, सत्सुख नही है । जगतमे बहुधा असातावेदनीय है । मैने धर्म-' मे अपना समय बितानेका नियम रखा है । सत्शास्त्रोका वाचन, मनन, सत्पुरुषोका समागम, यमनियम, एक मासमे बारह दिन ब्रह्मचर्य, यथाशक्ति गुप्तदान, इत्यादि धर्ममे अपना समय बिताता हूँ । सर्व व्यवहारसबधी उपाधियोमेसे कितना ही भाग मैने अधिकतर छोड दिया है । पुत्रोको व्यवहारमे यथायोग्य बनाकर मै निग्रंथ होनेकी इच्छा रखता हूँ । अभी निग्रंथ हो सकूं ऐसी स्थिति नही है, इसमे ससारमोहिनो या ऐसा कोई कारण नही है, परन्तु वह भी धर्मसंबधी कारण है । गृहस्थधर्मके आचरण बहुत निकृष्ट हो गये हैं, और मुनि उन्हे सुधार नही सकते । गृहस्थ गृहस्थको विशेष बोध दे सकता है, आचरणसे भी असर डाल सकता है । इसीलिये में गृहस्थवर्गको प्राय धर्मसंबधो बोध देकर यमनियममे लगाता हूँ । प्रति सप्ताह अपने यहाँ लगभग पाँचसो सद्गृहस्थोकी सभा होती है। उन्हे आठ दिनके नये अनुभव और बाकी के पिछले धर्मानुभवका दो-तीन मुहूर्त्त तक बोध देता हूँ । मेरी स्त्री धर्मशास्त्रकी कुछ जानकार होनेसे वह भी स्त्रीवर्गको उत्तम यमनियमका बोध देकर साप्ताहिक सभा करती है । पुत्र भी शास्त्रोका यथाशक्ति परिचय रखते है । विद्वानोका सन्मान, अतिथिका सन्मान, विनय ओर सामान्य सत्यता, एक ही भाव - ऐसे नियम बहुधा मेरे अनुचर भी पालते हे । इसलिये ये सब साता भोग सकते है | लक्ष्मोके साथसाथ मेरी नीति, धर्म, सद्गुण और विनयने जनसमुदायपर बहुत अच्छा असर किया है । राजा तक भी मेरी नीतिको बातको अङ्गीकार करे, ऐसी स्थिति हो गयी है । यह सब मै आत्मप्रशसा के लिये कहता नही हूँ, यह आप ध्यान रखें, मात्र आपको पूछी हुई बातकी स्पष्टताके लिये यह सव सक्षेपमे कह रहा हूँ । शिक्षापाठ ६५ : सुखसंबंधी विचार - भाग ५ इन सब बातोसे आपको ऐसा लग सकेगा कि मे सुखी हूँ और सामान्य विचारसे आप मुझे बहुत सुखी मानें तो माना जा सकता । धर्म, शील और नीतिसे तथा शास्त्रावधान से मुझे जो आनन्द प्राप्त होता है वह अवर्णनीय है । परन्तु तत्त्वदृष्टिसे मे सुखो न माना जाऊँ । जब तक मैंने वाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहका सब प्रकार से त्याग नही किया तब तक रागदोषका भाव है । यद्यपि वह बहुत अंशमे नही है, परतु है सही, तो वहां उपाधि भी है । सर्वसंगपरित्याग करनेकी मेरी सम्पूर्ण आकाक्षा है, परन्तु जब तक ऐसा नही हुआ हे तब तक अभी किसी माने गये प्रियजनका वियोग, व्यवहारमे हानि और कुटुम्बीका दु.ख ये थोडे अशमे भी उपाधि दे सकते है । अपनी देहमे मौतके सिवाय भी नाना प्रकारके रोगोका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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