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________________ १७वॉ वर्ष १०५ परन्तु इससे उनका मन किसी तरह माना नही । किसीको स्त्रीका दुःख, किसीको पतिका दुख, किसीको अज्ञानसे दुःख, किसीको प्रियजनोके वियोगका दुख, किसीको निर्धनताका दुःख, किसीको लक्ष्मीकी उपाधिका दुख, किसीको शरीरसबधी दुख, किसीको पुत्रका दुःख, किसीको शत्रुका दुख, किसीको जडताका दुख, किसीको माँ-बापका दुख, किसीको वैधव्यदु ख, किसीको कुटुम्वका दुःख, किसीको अपने नीच कुलका दुख, किसीको प्रीतिका दुख, किसीको ईर्ष्याका दुख, किसी को हानिका दुख, इस प्रकार एक, दो, अधिक अथवा सभी दुख स्थान स्थानपर उस ब्राह्मणके देखनेमे आये । इससे उसका मन किसी स्थानमे नही माना, जहाँ देखे वहाँ दुख तो था ही। किसी भी स्थानमे सपूर्ण सुख उसके देखनेमे नही आया । अब फिर क्या माँगना ? यो विचार करते-करते एक महाधनाढ्यको प्रशसा सुनकर वह द्वारिकामे आया । द्वारिका महाऋद्धिसम्पन्न, वैभवयुक्त, वागबगीचोसे सुशोभित और बस्तीसे भरपूर शहर उसे लगा । सुन्दर एव भव्य आवासोको देखता हुआ और पूछता - पूछता वह उस महाधनाढ्य के घर गया । श्रीमान् दीवानखानेमे बैठा हुआ था । उसने अतिथि जानकर ब्राह्मणका सन्मान किया, कुशलता पूछी और उसके लिय भोजनको व्यवस्था करवाई । थोडी देर के बाद सेठने धीरजसे ब्राह्मणको पूछा, “आपके आगमनका कारण यदि मुझे कहने योग्य हो तो कहिये ।" ब्राह्मणने कहा, "अभी आप क्षमा कीजिये । पहले आपको अपने सभी प्रकार के वैभव, धाम, बागबगीचे इत्यादि मुझे दिखाने पडगे, उन्हे देखनेके बाद मे अपने आगमनका कारण कहूँगा ।" सेठने इसका कुछ मर्मरूप कारण जानकर कहा, “भले आनदपूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार करिये।" भोजनके बाद ब्राह्मणने सेठको स्वय साथ चलकर धामादिक बतानेके लिपे विनती की। धनाढ्यने उसे मान्य रखा और स्वय साथ जाकर बागबगीचा, धाम, वैभव यह सव दिखाया । सेठकी स्त्री, पुत्र भी वहाँ ब्राह्मणके देखनेमे आये । उन्होने योग्यतापूर्वक उस ब्राह्मणका सत्कार किया । उनके रूप, विनय स्वच्छता तथा मधुरवाणीसे ब्राह्मण प्रसन्न हुआ। फिर उसकी दुकानका कारोबार देखा । सौ एक कारिदे वहाँ बैठे हुए देखे । वे भी मायालु, विनयी और नम्र उस ब्राह्मणके देखनेमे आये । इससे वह बहुत सतुष्ट हुआ । उसके मनको यहाँ कुछ सतोष हुआ । सुखी तो जगतमे यही मालूम होता है ऐसा उसे लगा । शिक्षापाठ ६२ : सुखसम्बन्धी विचार - भाग २ कैसे सुन्दर इसके भवन हैं। इनकी स्वच्छता और सभाल कैसी सुन्दर है ! - कैसी सयानी और मनोज्ञा इसकी सुशील स्त्री है । इसके कैसे कातिमान और आज्ञाकारी पुत्र हैं । कैसा मेलजोलवाला इसका कुटुम्ब ह । लक्ष्मोको कृपा भी इसके यहाँ कैसी है। सारे भारतमे इसके जैसा दूसरा कोई सुखी नही है । अब तप करके यदि मैं माँगें तो इस महाधनाढ्य जेसा ही सब माँगूं, दूसरी चाह न करूँ । दिन बीत गया और रात्रि हुई । सोनेका वक्त हुआ ।' धनाढ्य और ब्राह्मण एकातमे बैठे थे, फिर धनाढ्यने विप्रसे आगमनका कारण कहनेकी विनती की । विप्र - मै घरसे ऐसा विचार करके निकला था कि सबसे अधिक सुखी कौन है यह देखें; और तप करके फिर उस जैसा सुख प्राप्त करूँ सारा भारत और उसके सभी रमणीय स्थल देखे, परन्तु किसी राजाधिराज वहाँ भी सम्पूर्ण सुख मेरे देखने मे नही आया । जहाँ देखा वहाँ आधि, व्याधि और उपाधि देखनेमे आई । इस ओर आने पर आपकी प्रशसा सुनी, इसलिये मै यहाँ आया, और सन्तोष भी पाया। आपके जैसी ऋद्धि, सत्पुत्र, कमाई, स्त्री, कुटुम्ब, घर आदि मेरे देखने मे कही भी नही आये । आप स्वय भी धर्मशील, सद्गुणी और जिनेश्वरके उत्तम उपासक है। इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि आपके जैसा सुख अन्यत्र नही हे। भारतमे आप विशेष सुखी हैं । उपासना करके कदाचित् देवसे माँगूँ तो आपके जैसी सुखस्थिति माँगें । । 1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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