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________________ १७वॉ वर्ष १०१ माता-पिताकी विनय करके, आत्महितका लक्ष विस्मृत न हो इस तरह यत्नासे ससारी काममे प्रवृत्ति करनी चाहिये। स्वयं भोजन करनेसे पहले सत्पात्रमे दान देनेकी परम आतुरता रखकर वैसा योग मिलनेपर यथोचित प्रवृत्ति करनी चाहिये । आहार-विहारका नियमित समय रखना चाहिये, तथा सत्शास्त्रके अभ्यासका और तात्त्विक ग्रन्थके मननका भी नियमित समय रखना चाहिये। सायकालमे सध्यावश्यक उपयोगपूर्वक करना चाहिये । चौविहार प्रत्याख्यान करना चाहिये। नियमित निद्रा लेनी चाहिये। सोनेसे पहले अठारह पापस्थान, द्वादशवतदोष और सर्व जीवोसे क्षमा मांगकर, पचपरमेष्ठी मत्रका स्मरण करके महा शातिसे समाधिभावसे शयन करना चाहिये। ये सामान्य नियम बहुत लाभदायक होगे । ये तुम्हे सक्षेपमे कहे है । सूक्ष्म विचारसे और तदनुसार प्रवर्तन करनेसे ये विशेप मंगलदायक होगे। शिक्षापाठ ५६ क्षमापना हे भगवन् ! मैं बहुत भूल गया, मैंने आपके अमूल्य वचनोको ध्यानमे लिया नही । आपके कहे हुए अनुपम तत्त्वोका मैंने विचार किया नही । आपके प्रणीत किये हुए उत्तम शीलका सेवन किया नहीं। आपको कही हुई दया, शाति, क्षमा और पवित्रताको मैंने पहचाना नहीं । हे भगवन् | मै भूला, भटका, धूमा-फिरा और अनत ससारकी विडबनामे पड़ा हूँ। मैं पापी हूँ। मैं बहुत मदोन्मत्त और कर्मरजसे मलिन हूँ। हे परमात्मन् ! आपके कहे हुए तत्त्वोंके बिना मेरा मोक्ष नही। मैं निरतर प्रपचमे पडा हूँ। अज्ञानसे अघ हुआ हूँ, मुझमे विवेकशक्ति नही है और मै मूढ हूँ, मैं निराश्रित हूँ, अनाथ हूँ। नीरागी परमात्मन् । मैं अब आपकी, आपके धर्मकी और आपके मुनियोकी शरण लेता हूँ। मेरे अपराधोका क्षय होकर मै उन सब पापोसे मुक्त होऊँ यह मेरी अभिलाषा है। पूर्वकृत पापोका मैं अब पश्चात्ताप करता हूँ । ज्यो-ज्यो मै सूक्ष्म विचारसे गहरा उतरता हूँ त्यो त्यो आपके तत्त्वोंके चमत्कार मेरे स्वरूपका प्रकाश करते हैं । आप नीरागी, निर्विकारी, सच्चिदानदस्वरूप, सहजानंदी, अनतज्ञानी, अनतदर्शी और त्रैलोक्यप्रकाशक हैं । मैं मात्र अपने हितके लिये आपकी साक्षीमे क्षमा चाहता हूँ। एक पल भी आपके कहे हुए तत्त्वोकी शका न हो, आपके बताये हुए मार्गमे अहोरात्र मैं रहूँ, यही मेरी आकाक्षा और वृत्ति हो । हे सर्वज्ञ भगवन् । आपसे मै विशेष क्या कहूँ ? आपसे कुछ अज्ञात नही है । मात्र पश्चात्तापसे मै कर्मजन्य पापकी क्षमा चाहता हूँ। ___ॐ शाति. शाति शाति। शिक्षापाठ ५७ : वैराग्य धर्मका स्वरूप है एक वस्त्र खूनसे रगा गया । उसे यदि खूनसे धोयें तो वह धोया नहीं जा सकता, परतु अधिक रगा जाता है । यदि पानीसे उस वस्त्रको धोयें तो वह मलिनता दूर होना सभव है । इस दृष्टातसे आत्माका विचार करे । आत्मा अनादिकालसे ससाररूप खूनसे मलिन हुआ है। यह मलिनता रोम-रोममे व्याप्त हो गई है । इस मलिनताको हम विषयशृगारसे दूर करना चाहे तो यह दूर नहीं हो सकती। खूनसे जैसे खून नही धोया जाता, वेसे शृगारसे विषयजन्य आत्म-मलिनता दूर होनेवाली नही हे यह मानो निश्चित ही है। अनेक धर्ममत इस जगतमे प्रचलित हैं, उनके सवधमे अपक्षपातसे विचार करते हुए पहले इतना विचार करना आवश्यक हे कि, जहां स्त्रियाँ भोगनेका उपदेश किया हो, लक्ष्मी-लीलाकी शिक्षा दी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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