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________________ १७ वाँ वर्ष ८७ यह वाक्य छोडकर 'नमो सिद्धाण' यह वाक्य याद करना पडे । इस प्रकार पुन पुनः लक्ष्यकी दृढ़ता रखनेसे मन एकाग्रतापर पहुँचता है । यदि ये अक अनुक्रमबद्ध हो तो वैसा नही हो सकता, क्योकि विचार करना नही पडता । इस सूक्ष्म समयमे मन परमेष्ठीमन्त्रमेसे निकलकर ससारतन्त्रकी खटपटमे जा पडता है, और कदाचित् धर्म करते हुए अनर्थ भी कर डालता है, इसलिये सत्पुरुषोने इस अनानुपूर्वीकी योजना की है, यह बहुत सुन्दर और आत्मशान्तिको देनेवाली है । शिक्षापाठ ३७ : सामायिकविचार - भाग १ आत्मशक्तिका प्रकाश करनेवाला, सम्यग्ज्ञानदर्शनका उदय करनेवाला, शुद्ध समाधि भावमे प्रवेश करानेवाला, निर्जराका अमूल्य लाभ देनेवाला, रागद्वेषमे मध्यस्थबुद्धि करनेवाला ऐसा सामायिक नामका शिक्षाव्रत है । सामायिक शब्दको व्युत्पत्ति सम + आय + इक इन शब्दोसे होती है । 'सम' अर्थात् रागद्वेषरहित मध्यस्थ परिणाम, 'आय' अर्थात् उस समभावसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्गका लाभ, और ‘इक’का अर्थ भाव होता है । अर्थात् जिससे मोक्षके मार्गका लाभदायक भाव उत्पन्न हो वह 'सामायिक' । आर्त्त और रौद्र इन दो प्रकारके ध्यानका त्याग करके, मन, वचन और कायाके पाप भावोको रोककर विवेकी श्रावक सामायिक करता है । मनके पुद्गल' दोरगे है । सामायिकमे जब विशुद्ध परिणामसे रहना कहा है तब भी यह मन आकाश-पातालकी योजनाएँ बनाया करता है । इसी तरह भूल, विस्मृति, उन्माद इत्यादिसे वचनकायामे भी दूषण आनेसे सामायिकमे दोष लगता है। मन, वचन और कायाके मिलकर बत्तीस दोष उत्पन्न होते हैं। दस मनके, दस वचनके और बारह कायाके इस प्रकार बत्तीस दोषोको जानना आवश्यक है । जिन्हे जाननेसे मन सावधान रहता है। मनके दस दोष कहता हूँ १. अविवेकदोष - सामायिकका स्वरूप न जाननेसे मनमे ऐसा विचार करे कि इससे क्या फल होनेवाला है ? इससे तो कौन तरा होगा ? ऐसे विकल्पोका नाम 'अविवेकदोष' है । २. यशोवाछादोष- -स्वय सामायिक करता है यह अन्य मनुष्य जाने तो प्रशसा करे, इस इच्छासे सामायिक करे इत्यादि, यह 'यशोवाछादोष' है । ३. धनवाछादोष-धनको इच्छासे सामायिक करना, यह 'धनवाछादोष' है । ४. गर्वदोष -- मुझे लोग धर्मी कहते हैं और में सामायिक भी वैसी ही करता हूँ, यह 'गर्वदोष' है । ५. भयदोष - श्रावक कुलमे जन्मा हूँ, मुझे लोग बड़ा समझकर सम्मान देते है, और यदि मैं सामायिक नही करूँ तो कहेंगे कि इतना भी नही करता, इससे निदा होगी, यह 'भयदोष' है । ६. निदानदोष - सामायिक करके उसके फलसे धन, स्त्री, पुत्र आदि प्राप्त करनेकी इच्छा करना, यह ' निदानदोष' है । ७. संशयदोष -- सामायिकका परिणाम होगा या नही ? यह विकल्प करना 'सशयदोष' है । ८. कषायदोष - क्रोध आदिसे सामायिक करने बैठ जाय अथवा किसी कारणसे फिर क्रोध, मान, माया और लोभमे वृत्ति रखे, यह 'कषायदोष' है । ९. अविनयदोष - विनयरहित सामायिक करे, यह 'अविनय दोष' है । १०. अबहुमानदोष—भक्तिभाव और उमगपूर्वक सामायिक न करे, यह 'अवहुमानदोष' हैं । १. द्वि० आ० पाठा० तरगी ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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