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________________ १७ वा वर्ष सर्वथा न समझनेवालोकी अपेक्षा बहुत उत्तम है। स्थूल जीवोकी रक्षा करनेमे ये ठोक समझे है, परन्तु इन सबकी अपेक्षा हम कैसे भाग्यशाली हैं कि जहाँ एक पुष्पपङ्खडीको भी पीडा हो वहां पाप है, इस यथार्थ तत्त्वको समझे है और यज्ञ-यागादिको हिंसासे तो सर्वथा विरक्त रहे है। जहाँ तक हो सके वहाँ तक जीवोको बचाते हैं, फिर भी जानबूझकर जीवहिंसा करनेकी हमारी लेशमात्र इच्छा नही है। अनन्तकाय अभक्ष्यसे प्राय हम विरक्त ही है। इस कालमे यह समस्त पुण्यप्रताप सिद्धार्थ भूपालके पुत्र महावीरके कहे हुए परम तत्त्वबोधके योगवलसे बढा हैं। मनुष्य ऋद्धि पाते हैं, सुन्दर स्त्री पाते है, आज्ञाकारी पुत्र पाते है, बडा कुटुम्ब-परिवार पाते है, मानप्रतिष्ठा और अधिकार पाते है, और यह सब पाना कुछ दुर्लभ नही है, परन्तु यथार्थ धर्मतत्त्व या उसकी श्रद्धा या उसका थोड़ा अश भी माना महादुर्लभ है। यह ऋद्धि इत्यादि अविवेकसे पापका कारण होकर अनन्त दु खमे ले जाती है परन्तु यह थोड़ी श्रद्धाभावना भी उत्तम पदवीपर पहुंचाती है। ऐसा दयाका सत्परिणाम है। हमने धर्मतत्त्वयुक्त कुलमे जन्म पाया है, तो अब यथासम्भव हमे विमल दयामय वर्तनको अपनाना चाहिये। वारस्वार यह ध्यानमे रखना चाहिये कि सब जीवोकी रक्षा करनी है। दूसरोको भी युक्ति-प्रयुक्तिसे ऐसा ही बोध देना चाहिये । सर्व जीवोकी रक्षा करनेके लिये एक बोधदायक उत्तम युक्ति बुद्धिशाली अभयकुमारने की थी उसे मै अगले पाठमे कहता हूँ। इसी प्रकार तत्त्वबोधके लिये यौक्तिक न्यायसे अनार्य जैसे धर्ममतवादियोको शिक्षा देनेका अवसर मिले तो हम कैसे भाग्यशाली । शिक्षापाठ ३० : सर्व जीवोंकी रक्षा-भाग २ मगध देशकी राजगृही नगरीका अधिराज श्रेणिक एक बार सभा भरकर बैठा था । प्रसगोपात्त बातचीतके दौरान जो मासलुब्ध सामत थे वे बोले कि आजकल मास विशेष सस्ता है । यह बात अभयकुमारने सुनी । इसलिये उसने उन हिंसक सामतोको बोध देनेका निश्चय किया। साय सभा विसजित हुई, राजा अत पुरमे गया। उसके बाद अभयकुमार कर्तव्यके लिये जिस-जिसने मासकी बात कही थी उसउसके घर गया। जिसके घर गया वहाँ स्वागत करनेके बाद उसने पूछा-"आप किसलिये परिश्रम उठा कर मेरे घर पधारे है ?" अभयकुमारने कहा-"महाराजा श्रेणिकको अकस्मात् महारोग उत्पन्न हुआ है। वैद्योको इकट्ठे करनेपर उन्होने कहा कि कोमल मनुष्यके कलेजेका सवा टकभर मास हो तो यह रोग मिटे । आप राजाके प्रियमान्य हैं, इसलिये आपके यहाँ यह मास लेने आया हूँ।" सामतने विचार किया-"कलेजेका मास मैं मरे बिना किस तरह दे सकूँ ?" इसलिये अभयकुमारसे पूछा-"महाराज, यह तो कैसे हो सके ?" ऐसा कहनेके बाद अपनी बात राजाके आगे प्रकट न करनेके लिये अभयकुमारको बहुतसा द्रव्य "दिया जिसे वह अभयकुमार लेता गया । इस प्रकार अभयकुमार सभी सामतोके घर फिर आया। सभी मास न दे सके और अपनी बातको छुपानेके लिये उन्होने द्रव्य दिया । फिर जब दूसरे दिन सभा मिली तब सभी सामत अपने-अपने आसनपर आकर बैठे। राजा भो सिंहासनपर विराजमान था। सामृत आ-आकर राजासे कलकी कुशल पूछने लगे। राजा इस बातसे विस्मित हुआ। अभयकुमारकी ओर देखा। तब अभयकुमार बोला-"महाराज | कल आपके सामंत सभामे वोले थे कि आजकल मास सस्ता मिलता है, इसलिये मैं उनके यहाँ मास लेने गया था, तव सबने मुझे बहुत द्रव्य दिया, परतु कलेजेका सवा पैसा भर मास नहीं दिया। तब यह मास सस्ता या महँगा ?" यह सुनकर सब सामत शरमसे नीचे देखने लगे, कोई कुछ बोल न सका। फिर अभयकुमारने कहा"यह मैने कुछ आपको दुख देनेके लिये नही किया परतु बोध देनेके लिये किया है। यदि हमे अपने १ द्वि० आ० पाठा० 'प्रत्येक सामत देता गया और वह'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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