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________________ १७वा वर्ष वस्था चली जाती है। फिर वृद्धावस्था आती है। शरीर कांपता है, मुखसे लार झरती है, त्वचा पर झुर्रा पड़ जाती है, सँघने, सुनने और देखनेकी शक्तियाँ सर्वथा मंद हो जाती हैं, केश सफेद होकर झडने लगते है । चलनेकी शक्ति नहीं रहती, हाथमे लकडी लेकर लडखडाते हुए चलना पडता है, या तो जीवनपर्यत खाट पर पड़ा रहना पडता है । श्वास, खासी इत्यादि रोग आकर घेर लेते हैं, और थोडे कालमे काल आकर कवलित कर जाता है। इस देहमेसे जीव चल निकलता है। काया हुई न हुई हो जाती है। मरण के समय कितनी अधिक वेदना होती है ? चतुर्गतिमे श्रेष्ठ जो मनुष्य-देह है उसमे भी कितने अधिक दुख रहे हुए हैं । फिर भी ऊपर कहे अनुसार अनुक्रमसे काल आता है ऐसा नही है। चाहे जब वह आकर ले जाता है। इसीलिये विचक्षण पुरुष प्रमाद किये बिना आत्मकल्याणकी आराधना करते हैं। शिक्षापाठ १९ : संसारकी चार उपमाएँ-भाग १ १ महातत्त्वज्ञानी ससारको एक समुद्रकी उपमा भी देते है। संसाररूपी समुद्र अनत और अपार है। अहो लोगो | इसका पार पानेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो। उपयोग करो। इस प्रकार उनके स्थान-स्थान पर वचन है । ससारको समुद्रकी उपमा छाजती भी है। समुद्रमे जैसे मौजोकी उछाले उछला करती है, वैसे ससारमे विषयरूपी अनेक मौजें उछलती हैं। समुद्रका जल जैसे, ऊपरसे सपाट दिखाई देता है वैसे ससार भी सरल दिखायी देता है । समुद्र जैसे कही बहुत गहरा है, और कही भंवरोमे डाल देता है, वैसे ससार कामविषयप्रपंचादिमे बहुत गहरा है, वह मोहरूपी भंवरोमे डाल देता है । थोडा जल होते हुए भी समुद्रमे खडे रहनेसे जैसे कीचडमे फँस जाते है, वैसे संसारके लेशभर प्रसगमे वह तृष्णारूपी कीचडमे फंसा देता है । समुद्र जैसे नाना प्रकारकी चट्टानो और तूफानोंसे नाव या जहाजको हानि पहुंचाता है, वैसे स्त्रियोरूपी चट्टानो और कामरूपी तुफानोसे ससार आत्माको हानि पहँचाता है। समुद्र जैसे अगाध जलसे शीतल दिखायी देने पर भी उसमे वडवानल नामकी अग्निका वास है, वैसे ससारमे मायारूपी अग्नि जला ही करती है । समुद्र जैसे चौमासेमे अधिक जल पाकर गहरा हो जाता है, वैसे पापरूपी जल पाकर ससार गहरा हो जाता है, अर्थात् जड जमाता जाता है। २ ससारको दूसरी उपमा अग्निकी छाजती है। अग्निसे जैसे महातापकी उत्पत्ति होती है, वैसे ससारसे भी त्रिविध तापकी उत्पत्ति होती है । अग्निसे जला हुआ जीव जैसे महान बिलबिलाहट करता है, वैसे ससारसे जला हुआ जीव अनत दुखरूप नरकसे असह्य विलबिलाहट करता है। अग्नि जैसे सब वस्तुओका भक्षण कर जाती है वैसे अपने मुखमे पडे हुओको ससार भक्षण कर जाता है। अग्निमे ज्यो-ज्यो घी और ईंधा होमे जाते हैं त्यो त्यो वह वृद्धि पाती है, "वैसे ससारमे ज्यो-ज्यो तीव्र मोहिनीरूपी घी और विपयरूपी ईधन होमे जाते हैं त्यो-त्यो वह वृद्धि पाता है।' ___३ ससारको तीसरी उपमा अधकारकी छाजती है । अधकारमे जैसे रस्सी सर्पका ज्ञान कराती है, वैसे ससार सत्यको असत्यरूप बताता है । अंधकारमे जैसे प्राणी इधर-उधर भटक कर विपत्ति भोगते हैं, वैसे ससारमे वेभान होकर अनत आत्मा चतुर्गतिमे इधर-उधर भटकते हैं ! अधकारमे जैसे काँच और हीरेका ज्ञान नही होता, वैसे ससाररूपी अधकारमे विवेक-अविवेकका ज्ञान नही होता। जैसे अधकारमे प्राणी आँखें होने पर भी अधे बन जाते हैं, वैसे शक्तिके होनेपर भी ससारमे वे मोहाध बन जाते है । अधकारमे जैसे उल्लू इत्यादिका उपद्रव बढ जाता है, वैसे ससारमे लोभ, माया आदिका उपद्रव बढ जाता है। अनेक प्रकारसे देखते हुए ससार अधकाररूप ही प्रतीत होता है। १ द्वि० आ० पाठा--'उसी प्रकार ससाररूपी अग्निमें तीव्र मोहिनीरूपी घी और विषयरूपी इंधन होमा जानेसे वह वृद्धि पातो है।'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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