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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ज्ञानशालाके विद्यार्थियोको शिक्षापाठ मुखाग्र करायें और वारंवार समझाये। जिन-जिन ग्रन्थोकी इसके लिये सहायता लेनो योग्य हो वह ली जाये। एक-दो बार पुस्तकको पूरा सीख लेनेके बाद उसका अभ्यास उलटेसे करायें। मैं मानता हूँ कि सुज्ञ वर्ग इस पुस्तककी ओर कटाक्ष दृष्टिसे नही देखेगा। बहुत गहराईसे मनन करनेपर यह मोक्षमाला मोक्षका कारणरूप हो जायेगी। इसमे मध्यस्थतासे तत्त्वज्ञान और शीलका बोध देनेका उद्देश्य है। इस पुस्तकको प्रसिद्ध करनेका मुख्य हेतु यह भी है कि जो उगते हुए बाल युवक अविवेकी विद्या प्राप्त करके आत्मसिद्धिसे भ्रष्ट होते है, उनकी भ्रष्टता रोकी जाये। मनमाना उत्तेजन नही होनेसे लोगोकी भावना कैसी होगी इसका विचार किये बिना ही यह साहस किया है, मैं मानता हूँ कि यह फलदायक होगा। शालामे पाठकोको भेंटरूप देनेमे उत्साहित होनेके लिये और जैनशालामे अवश्य इसका उपयोग करनेके लिये मेरा अनुरोध है। तभी पारमार्थिक हेतु सिद्ध होगा। शिक्षापाठ १ : वाचकसे अनुरोध वाचक | मैं आज तुम्हारे हस्तकमलमे आती हूँ। मुझे यत्नापूर्वक पढना। मेरे कहे हुए तत्त्वको हृदयमे धारण करना । मै जो-जो बात कहूँ उस-उसका विवेकसे विचार करना। यदि ऐसा करोगे तो तुम ज्ञान, ध्यान, नीति, विवेक, सद्गुण और आत्मशाति पा सकोगे। __ तुम जानते होगे कि कितने ही अज्ञानी मनुष्य न पढने योग्य पुस्तकें पढकर अपना वक्त खो देते है, और उल्टे रास्ते पर चढ जाते हैं। वे इस लोकमे अपकीर्ति पाते है, तथा परलोकमे नीच गतिमे जाते है । तुमने जिन पुस्तकोको पढा है, और अभी पढते हो, वे पुस्तकें मात्र ससारकी है, परन्तु यह पुस्तक तो भव और परभव दोनोमे तुम्हारा हित करेगी। भगवानके कहे हुए वचनोका इसमे थोडा उपदेश किया है। तुम किसी प्रकारसे इस पुस्तककी अविनय न करना, इसे न फाडना, इसपर दाग न लगाना या दूसरी किसी भी तरहसे न विगाडना। विवेकसे सारा काम करना। विचक्षण पुरुषोने कहा है कि जहाँ विवेक है वही धर्म है। तुमसे एक यह भी अनुरोध है कि जिन्हें पढना न आता हो और उनकी इच्छा हो तो यह पुस्तक अनुक्रमसे उन्हें पढ सुनाना । तुम जिस वातको न समझ पाओ उसे सयाने पुरुषसे समझ लेना। समझनेमे आलस्य या मनमे शका न करना। तुम्हारे आत्माका इससे हित हो, तुम्हे ज्ञान, शाति और आनद मिले, तुम परोपकारी, दयालु, क्षमावान, विवेकी और बुद्धिशाली बनो, ऐसी शुभ याचना अर्हत भगवानसे करके यह पाठ पूर्ण करता हूँ। शिक्षापाठ २ : सर्वमान्य धर्म चौपाई *धर्मतत्त्व जो पूछयं मने, तो संभळा, स्नेहे तने; जे सिद्धात सकळनो सार, सर्वमान्य सहुने हितकार ॥१॥ *मावार्थ- यदि तूने धर्मतत्त्व मुझसे पूछा है, तो उसे तुझे स्नेहसे सुनाता हूँ। जो सकल सिद्धातका सार है, सर्वमान्य और सर्वहितकर है ॥१॥ ..
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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