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________________ श्रीमद् राजचन्द्र भी सुखदायक नही है । जैसे कोई पुरुष महा प्रवासमे अन्न-जल साथमे न ले तो क्षुधा तृषासे दुखी होता है वैसे ही धर्मके अनाचरणसे परभवमे जानेपर वह पुरुष दुखी होता है, जन्म-जरादिकी पीड़ा पाता है । महाप्रवासमे जाता हुआ जो पुरुष अन्न-जलादि साथमे लेता है वह पुरुष क्षुधा-तृषासे रहित होकर सुख पाता है उसी प्रकार धर्मका आचरण करनेवाला पुरुष परभवमे जानेपर सुख पाता है, अल्प कर्मरहित होता है और असातावेदनीयसे रहित होता है । हे गुरुजनो । जैसे किसी गृहस्थका घर प्रज्वलित होता है तब उस घरका मालिक अमूल्य वस्त्रादिको ले जाकर जीर्ण वस्त्रादिको वही छोड़ देता है, वैसे ही लोकको जलता देखकर जीर्ण वस्त्ररूप जरामरणको छोडकर अमूल्य आत्माको उस दाहसे (आप आज्ञा दें तो मैं) बचाऊँगा।" मृगापुत्रके वचन सुनकर उसके मातापिता शोकार्त होकर बोले, "हे पुत्र | यह तू क्या कहता है ? चारित्रका पालन अति दुष्कर है। यतिको क्षमादिक गुण धारण करने पड़ते हैं, निभाने पड़ते हैं, और यत्नासे सँभालने पडते है । सयतिको मित्र और शत्रुमे समभाव रखना पडता है, सयतिको अपने आत्मा और परात्मापर समवुद्धि रखनी पडती है, अथवा सर्व जगतपर समान भाव रखना पडता है। ऐसा पालनेमे दुष्कर प्राणातिपातविरति प्रथम व्रत, उसे जीवनपर्यन्त पालना पड़ता है। सयतिको सदैव अप्रमत्ततासे मृषा वचनका त्याग करना और हितकारी वचन बोलना, ऐसा पालनेमे दुष्कर दूसरा व्रत धारण करना पडता है । सयतिको दत-शोधनके लिये एक सलाईके भी अदत्तका त्याग करना और निरवद्य एव दोषरहित भिक्षाका ग्रहण करना, ऐसा पालनेमे दुष्कर तीसरा व्रत धारण करना पड़ता है । कामभोगके स्वादको जानने और अब्रह्मचर्यके धारण करनेका त्याग करके ब्रह्मचर्यरूप चौथा व्रत सयतिको धारण करना तथा उसका पालन करना बहुत दुष्कर है । धनधान्य, दास-समुदाय, परिग्रहके ममत्वका वर्जन और सभी प्रकारके आरंभका त्याग करके केवल निर्ममत्वसे यह पाँचवाँ महाव्रत सयतिको धारण करना अति विकट है। रात्रिभोजनका वर्जन तथा घृतादि पदार्थोके वासी रखनेका त्याग करना अति दुष्कर है । हे पुत्र । तू चारित्र चारित्र क्या करता है ? चारित्र जैसी दु.खप्रद वस्तु दूसरी कौनसी है ? क्षुधा का परिषह सहन करना, तृषाका परिषह सहन करना, शीतका परिषह सहन करना, उष्ण तापका परिषह सहन करना, डॉस-मच्छरका परिषह सहन करना, आक्रोशका परिषह सहन करना, उपाश्रयका परिषह सहन करना, तृणादिके स्पर्शका परिषह सहन करना, तथा मैलका परिषह सहन करना, हे पुत्र । निश्चय मान कि ऐसा चारित्र कैसे पाला जा सकता है ? वधका परिषह और बन्धका परिषह कैसे विकट हैं। भिक्षाचरी कैसी दुष्कर है ? याचना करना कैसा दुष्कर है ? याचना करनेपर भी प्राप्त न हो, यह अलाभपरिषह कैसा दुष्कर है ? कायर पुरुषके हृदयका भेदन कर डालनेवाला केशलुचन कैसा विकट है ? तू विचार कर, कर्मवैरीके लिये रौद्र ऐसा ब्रह्मचर्य व्रत कैसा दुष्कर है ? सचमुच । अधीर आत्माके लिये यह सब अति-अति विकट है। प्रिय पुत्र | तू सुख भोगनेके योग्य है । तेरा सुकुमार शरीर अति रमणीय रीतिसे निर्मल स्नान करनेके योग्य है । प्रिय पुत्र | निश्चय ही तू चारित्र पालनेके लिये समर्थ नही है। जीवन पर्यन्त इसमे विश्राम नहीं है । सयतिके गुणोका महासमुदाय लोहेकी भांति बहुत भारी है। सयमका भार वहन करना अति अति विकट है । जैसे आकाशगगाके प्रवाहके सामने जाना दुष्कर है वैसे ही यौवनवयमे सयम महादुष्कर है। जैसे प्रतिस्रात जाना दुष्कर है, वैसे ही यौवनमें सयम महादुष्कर है। भुजाओसे जैसे समुद्रको तरना दुष्कर है वैसे ही यौवनमे सयमाणसमुद्र पार करना महादुष्कर है। जैसे रेतका कौर नीरस है वैसे ही सयम भी नीरस है। जैसे खड्ग-धारापर चलना विकट है वैसे ही तपका आचरण करना महाविकट हैं । जस सर्प एकात दृष्टिसे चलता है, वैसे ही चारित्रमे ईर्यासमितिके लिये एकातिक चलना महादुष्कर है । हे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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