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________________ ५० श्रीमद राजचन्द्र दूँ ।" साधु बोले, "हे वैद्य । कर्मरूपी रोग महोन्मत्त है, इस रोगको दूर करनेकी यदि आपकी समर्थता हो तो भले मेरा यह रोग दूर करे। यह समर्थता न हो तो यह रोग भले रहे ।” देवताने कहा, "इस रोगको दूर करने को समर्थता तो मैं नही रखता ।" बादमे साधुने अपनी लब्धिके परिपूर्ण बलसे थूकवाली अगुलि करके उसे रोगपर लगाया कि तत्काल वह रोग नष्ट हो गया और काया फिर जैसी थी वैसी हो गयी। बादमे उस समय देवने अपना स्वरूप प्रगट किया, धन्यवाद देकर, वदन करके वह अपने स्थानको चला गया । प्रमाण शिक्षा - रक्तपित्त जैसे सदैव खून - पोप से खदबदाते हुए महारोगकी उत्पत्ति जिस कायामे है, पलभरमे विनष्ट हो जानेका जिसका स्वभाव है, जिसके प्रत्येक रोममे पौने दो दो रोगोका निवास है, वैसे साढे तीन करोड़ रोमोसे वह भरी होनेसे करोडो रोगोका वह भडार है, ऐसा विवेक से सिद्ध है । अन्नादिकी न्यूनाधिकतासे वह प्रत्येक रोग जिस कायामे प्रगट होता है, मल, मूत्र, विष्ठा, हड्डी, मास, पीप और श्लेष्मसे जिसका ढाँचा टिका हुआ है, मात्र त्वचासे जिसकी मनोहरता है, उस कायाका मोह सचमुच । विभ्रम ही है । सनत्कुमारने जिसका लेशमात्र मान किया वह भी जिससे सहन नही हुआ उस कायामे अहो पामर । तू क्या मोह करता है ? 'यह मोह मगलदायक नही है ।" 1 ऐसा होनेपर भी आगे चलकर मनुष्यदेहको सर्व- देहोत्तम कहना पडेगा । इससे सिद्धगतिकी सिद्धि है, यह कहनेका आशय है । वहॉपर निःशंक होनेके लिये यहाँ नाममात्रका व्याख्यान किया है । आत्माके शुभ कर्मका जब उदय आता है तब उसे मनुष्यदेह प्राप्त होती है । मनुष्य अर्थात् दो हाथ, दो पैर, दो आँखे, दो कान, एक मुख, दो ओष्ठ और एक नाकवाली देहका अधीश्वर ऐसा नही है । परन्तु उसका मर्म कुछ और ही है। यदि इस प्रकार अविवेक दिखायें तो फिर वानरको मनुष्य माननेमे क्या दोष है ? उस बेचारेने तो एक पूंछ भी अधिक प्राप्त की है। पर नहीं, मनुष्यत्वका मर्म यह हैविवेकबुद्धि जिसके मनमे उदित हुई है, वही मनुष्य है, बाकी सभी इसके बिना दो पैरवाले पशु ही हैं । मेधावी पुरुष निरतर इस मानवत्वका मर्म इसी प्रकार प्रकाशित करते है । विवेकबुद्धिके उदयसे मुक्तिके राजमार्गमे प्रवेश किया जाता है । 'और इस मार्गमे प्रवेश यही मानवदेहकी उत्तमता है। फिर भी इतना स्मृति रखना उचित है कि यह देह केवल अशुचिमय और अशुचिमय ही है । इसके स्वभावमे और कुछ भी नही है । भावनावोध ग्रन्थमें अशुचिभावनाके उपदेशके लिये प्रथम दर्शनके पाँचवें चित्रमें सनत्कुमारका दृष्टात और प्रमाणशिक्षा पूर्ण हुए । J अंतर्दर्शन: षष्ठ चित्र निवृत्तिबोध ( नाराच छद) अनंत सौख्य नाम दुःख त्यां रही न मित्रता ! अनंत दुःख नाम सौख्य प्रेम त्यां, विचित्रता !! उघाड न्याय-नेत्र ने निहाळ रे ! निहाळ तुं; निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं ॥ विशेषार्थ - जिसमे एकात और अनत सुखको तरगे उछलती हैं ऐसे शील, ज्ञानको नाममात्रके दुखत आकर, मित्ररूप न मानते हुए उनमे अप्रीति करता है; और केवल अनत दुःखमय ऐसे जो १ द्वि० आ० पाठा० - यह किंचित् स्तुतिपात्र नही है ।' २. देखिये मोक्षमाला शिक्षापाठ ४ - मानवदेह |
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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